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२१७] अष्टादश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र ,
विशेष स्पष्टीकरण ___ गाथा २३-प्राचीन युग में दार्शनिक विचारधारा के चार प्रमुख वाद थे-१. क्रियावाद, २. अक्रियावाद, ३. अज्ञानवाद और ४. विनयवाद। सत्रकतांग के अनुसार इन चारों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है
(१) क्रियावादी-आत्मा के अस्तित्व को तो मानते थे, पर उसके सर्वव्यापक या अव्यापक, कर्ता या अकर्ता, मूर्त या अमूर्त आदि स्वरूप के सम्बन्ध में संशय रखते थे।
(२) अक्रियावादी-आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानते थे। अतः उनके यहाँ पुण्य, पाप, लोक, परलोक, संसार और मोक्ष आदि की कोई भी मान्यता नहीं थी। यह प्राचीन युग की नास्तिक परम्परा है।
(३) अज्ञानवादी-अज्ञान से ही सिद्धि मानते थे। उनके मत में ज्ञान ही सारे पापों का मल है, सभी द्वन्द्व ज्ञान में से ही खड़े होते हैं। ज्ञान के सर्वथा उच्छेद में ही उनके यहाँ मक्ति है।
(४) विनयवादी-एकमात्र विनय से ही मुक्ति मानते थे। उनके विचार में देव, दानव, राजा, रंक, तपस्वी, भोगी, हाथी, घोड़ा, गाय, भैंस, शृगाल आदि हर किसी मानव एवं पशु-पक्षी आदि को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करने से ही क्लेशों का नाश होता है।
क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के २४, अज्ञानवादियों के ६७ और विनयवादियों के ३२ भेद थे। इस प्रकार कुल मिलाकर ३६३ पाषण्ड थे। ___ गाथा २८-क्षत्रिय मुनि के कहे हुये "दिव्यवर्षशतोपम" का भाव यह है कि जैसे मनुष्य यहाँ वर्तमान में लोकदृष्टि से सौ वर्ष की पूर्ण आयु भोगता है, वैसे ही मैंने वहाँ देवलोक में दिव्य सौ वर्ष की आयु का भोग किया है।
"पाली' से पल्योपम और "महापाली" से सागरोपम अर्थ किया जाता है। "पाली" साधारण जलाशय से उपमित है, और “महापाली" सागर से। ___पल्योपम (एक योजन के ऊँचे और विस्तृत पल्य, बोरा आदि या कूप) को सात दिन के जन्म लिये बालक के बारीक केशों से (केश के अग्र भागों से) ठसाठस भर दिया जाय, फिर सौ-सौ वर्ष के बाद क्रम से एक-एक केशखण्ड को निकाला जाये। जितने काल में वह पल्य अर्थात् कुआँ रिक्त हो, उतने काल को एक पल्य कहते हैं। इस प्रकार के दस कोड़ाकोडी पल्यों का एक सागर होता है। सागर अर्थात् समुद्र के जलकणों जितना विराट लम्बा कालचक्र। यह एक उपमा है, अतः इसे पल्योपम और सागरोपम भी कहते हैं।
अध्ययन में वर्णित प्राचीन राजाओं का कथानक उत्तराध्ययन महिमा में देखें। संक्षिप्त सूचना चित्रों में दी है।
गाथा ५१-“सिरसा सिर" का अर्थ है-शिर देकर शिर लेना। अर्थात् जीवन की कामना से मुक्त रहकर मानव शरीर में सर्वोपरिस्थ शिर के समान सर्वोपरिवर्ती मोक्ष को प्राप्त करना।
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