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१८९] षोडश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र in
आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु पणीयं पाणभोयणं आहारेमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । __तम्हा खलु नो निग्गन्थे पणीयं आहारं आहारेज्जा ।। सातवाँ ब्रह्मचर्य समाधि स्थान
सूत्र ९-जो सरस, प्रणीत, पौष्टिक आहार नहीं करता; वह निर्ग्रन्थ है। (प्रश्न) ऐसा क्यों है ?
(उत्तर) आचार्य ने कहा-सरस, पौष्टिक, प्रणीत आहार पानी का सेवन करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ के ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा समुत्पन्न होती है, ब्रह्मचर्य का नाश हो जाता है, उन्माद उत्पन्न होता है, अथवा दीर्घकालिक रोग व आतंक उत्पन्न हो जाता है, वह केवली भगवान द्वारा प्ररूपित किये गये धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
इसलिए निर्ग्रन्थ रसयुक्त पौष्टिक आहार न करे।
Maxim 9-(Seventh celibacy condition)-Who does not eat delicious, nourishing and cozing ghee and oil-such food, is a knotless monk.
(Q.) Why it is so?
(Ans.) Preceptor expresses-By taking nourishing, delicious and oozing ghee-oil diets, the celibate knotless monk may be doubtful regarding the benefits of celibacy, he may desire sexual intercourse, intensity of desire may cause mental frustration, vow of celibacy may be broken, mental disorder rnay arouse, or he may be caught by hazardous illness of long duration, he forbids the religious order precepted by kevalins.
So knot-free monk should not take delicious and nourishing diets. सूत्र १०-नो अइमायाए पाणभोयणं आहारेत्ता हवइ, से निग्गन्थे । तं कहमिति चे?
आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु अइमायाए पाणभोयणं आहारेमाणस्स, बम्भयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा ।
तम्हा खलु नो निग्गन्थे अइमायाए पाणभोयणं भुंजिज्जा । आठवाँ ब्रह्मचर्य समाधि स्थान
सूत्र १०-जो अधिक मात्रा में-प्रमाण से अधिक भोजन-पान नहीं खाता-पाता; वह निर्ग्रन्थ है। (प्रश्न) ऐसा क्यों है ?
(उत्तर) आचार्य ने कहा-मात्रा-परिमाण से अधिक भोजन-पान करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा समुत्पन्न होती है, ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है, उन्माद उत्पन्न होता है , दीर्घकालीन रोग व आतंक हो जाते हैं, वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
इसलिए निर्ग्रन्थ को अधिक परिमाण में भोजन-पान नहीं करना चाहिए।
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