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१७१ ] चतुर्दश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
बंधन को तोड़कर जिस प्रकार हाथी अपने नैसर्गिक निवास स्थान- वन में चला जाता है उसी प्रकार हमको भी अपने वास्तविक स्थान- मोक्ष में चला जाना चाहिए। हे इषुकार महाराज ! ऐसा मैंने ज्ञानियों से श्रवण किया है ॥ ४८ ॥
Breaking the fetters as an elephant goes to its natural residence-the forest. In the same way we also should attain salvation, which is our real destination. O King! such I have heard from the enlighteneds-wise men. (48)
चइत्ता विउलं रज्जं, कामभोगे य दुच्चए । निव्विसया निरामिसा, निन्नेहा निष्परिग्गहा ॥४९॥ ॥
विशाल राज्य और दुस्त्याज्य काम-भोगों का परित्याग कर वे राजा-रानी भी निर्विषय, निरामिष, निःस्नेह और परिग्रह रहित हो गये ॥ ४९ ॥
Renouncing wide kingdom and difficult to abandon worldly pleasure-the king and queen also became devoid of affection, possession and passions. (49)
सम्मं धम्मं वियाणित्ता, चैच्चा कामगुणे वरे । तवं पगिज्झऽ हक्खायं, घोरं घोरपरक्कमा ॥५०॥
सम्यक् प्रकार से धर्म को जानकर तथा प्राप्त श्रेष्ठ कामगुणों को त्यागकर राजा-रानी दोनों ने ही यथोपदिष्ट उग्र तप को स्वीकार किया और संयम में घोर पराक्रम करने लगे ॥५०॥
Knowing well the religion and abandoning all pleasures and amusements; king and queen-both accepted rigorous penance and began to endeavour in restrain and selfcontrol. (50)
एवं ते कमसो बुद्धा, सव्वे धम्मपरायणा । जम्म- मच्चुभउव्विग्गा, दुक्खस्सन्तगवेसिणो ॥५१॥
इस प्रकार वे सब - छहों व्यक्ति बुद्ध और धर्मपरायण बने, जन्म एवं मरण से उद्विग्न परम्परा के अन्त की खोज में लग गये ॥५१॥
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हुए
Thus all those six persons became enlightened, religious-minded, being frightened by the cycle of births and deaths, began to seek the end of miseries. (51)
और दुःख
सासणे विगयमोहाणं, पुव्विं भावणभाविया ।
अचिरेणेव कालेण, दुक्खस्सन्तमुवागया ॥ ५२ ॥
पूर्व जन्म में जिन्होंने अनित्य आदि वैराग्य भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित किया था, अब मोहरहित होकर तथा जिनशासन की शरण ग्रहण करके थोड़े ही समय में सभी दुःखों का अन्त कर दिया ॥५२॥
In previous life they have endowed their souls by apathy feelings of ineternal, nonshelter etc. Now becoming devoid of delusion and taking shelter of the order of Jinas, in a short period, they ended all miseries. (52)
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