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१६९] चतुर्दश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
सव्वं जगं जइ तुहं, सव्वं वावि धणं भवे ।
सव्वं पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणाय तं तव ॥३९॥ यदि सारा जगत और संसार का सारा धन भी आपको प्राप्त हो जाय तो वह सब भी आपके लिए अपर्याप्त ही होगा; और वह धन भी आपकी रक्षा नहीं कर सकेगा ॥३९॥
If you get whole world and the complete wealth of universe, that also would be insufficient for you; and that wealth could not save you. (39)
मरिहिसि रायं ! जया तया वा, मणोरमे कामगुणे पहाय ।
एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जई अन्नमिहेह किंचि ॥४०॥ राजन् ! जब आप इन मनोज्ञ कामभोगों को छोड़कर मरोगे तब एक मात्र धर्म ही आपका रक्षक होगा। इसलिए हे नरेन्द्र ! इस संसार में धर्म के अतिरिक्त इस प्राणी का कोई भी रक्षक नहीं है ॥४०॥
O King ! when you will expire, all these objects of pleasures will be left here. Therefore OKing ! In this world there is no saviour of a being except religion. (40)
नाहं रमे पक्खिणी पंजरे वा, संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं ।
अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा, परिग्गहारंभनियत्तदोसा ॥४१॥ __ जिस प्रकार पिंजड़े में बन्द हुई पक्षिणी सुख का अनुभव नहीं करती, वैसे ही मैं भी नहीं करती। अतः मैं भी पारिवारिक स्नेह सम्बन्धों को तोड़कर, अकिंचन, सरल, शब्द आदि विषय-भोगों में अनासक्त, परिग्रह और हिंसा के दोषों से निवृत्त होकर मुनिधर्म का आचरण करूँगी ॥४१॥
As a bird does not delight captivated in cage, so I also. Hence I shall practise the monkorder becoming a nun (HE) and cutting off all the family relations, having nothing my own, upright, devoid of desires and the defects-faults of possessions and violence. (41)
दवग्गिणा जहा रण्णे, डज्झमाणेसु जन्तुस ।
अन्ने सत्ता पमोयन्ति, रागद्दोसवसं गया ॥४२॥ जिस प्रकार वन में लगे दावानल में जलते हुए जन्तुओं को देखकर राग-द्वेष के वशवर्ती होकर अन्य जीव प्रसन्न होते हैं ॥४२॥
As when by conflagration of a forest animals are burned, the other beasts rejoice under the influence of attachment and aversion. (42)
एवमेव वयं मूढा, काम भोगेसु मुच्छिया ।
डज्झमाणं न बुज्झामो, रागद्दोसऽग्गिणा जगं ॥४३॥ उसी तरह काम-भोगों में मूर्छित हम मूढ़ लोग भी राग-द्वेष की अग्नि में जलते हुए संसार को नहीं समझ रहे हैं ॥४३॥
In the same way, indulged in pleasures we foolish people are not perceiving that this world-the living beings of this world are consuming in the fire of attachment and aversion. (43)
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