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१५३] त्रयोदश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
सो दाणिसिं राय ! महाणुभागो, महिड्ढिओ पुण्णफलोववेओ ।
चइत्तु भोगाइं असासयाई, आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि ॥२०॥ हे राजन् ! वही सम्भूत के जीव तुम पूर्व शुभ कर्मों के कारण इस समय महाभाग्यवान, महाऋद्धिवान् एवं पुण्यफलों से युक्त हो। अब इन क्षणिक काम-भोगों को त्यागकर, चारित्र धर्म को ग्रहण करने के लिए अभिनिष्क्रमण करो ॥२०॥
o King ! you are the soul of same Sambhūta, enjoying the fruits of meritorious activities done in the former life in the form of great fortune, prosperity, wealth and kingdom. Now renouncing these transitory pleasures and for accepting the monk-conduct come out. (20)
इह जीविए राय ! असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो ।
से सोयई मच्चुमुहोवणीए, धम्मं अकाऊण परंसि लोए ॥२१॥ हे राजन् ! इस नश्वर मानव-जीवन को पाकर जो विपुल पुण्य कर्म नहीं करता, वह मृत्यु के समय शोक करता है और धर्म न करने के कारण परलोक में भी शोक करता है ॥२१॥
O King ! He who does not do enormous meritorious deeds, he laments at the hour of death and by not doing religious activities becomes full of sorrow in the life to come or in the next life. (21)
जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले ।
न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मिंऽसहरा भवंति ॥२२॥ जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़कर ले जाता है उसी प्रकार आयु समाप्त होने पर मृत्यु भी अन्त समय में मानव को पकड़कर ले जाती है। मृत्यु के समय माता-पिता, भाई-बन्धु कोई भी उसके सहायक नहीं होते ॥२२॥
As the lion takes hold of a deer, so death leads off a man in his last hour. At that time mother, father, brother, brethren none can become helpful. (22)
न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा ।
एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥२३॥ उस मृत्यु के मुख में जाते हुए व्यक्ति के दुःख को जाति जन, मित्र, पुत्र तथा बान्धव नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला ही उन प्राप्त दुखों को भोगता है; क्योंकि कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है ॥२३॥
Neither kinsmen, nor friends, nor sons, nor relations can co-share the miseries of the man in the jaws of death; he alone has to suffer it, because the karrnas follow only the accumulator-doer. (23)
चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं ।
कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुन्दर पावगं वा ॥२४॥ द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धन-धान्य आदि सब कुछ यहीं छोड़कर वह पराधीन आत्मा अपने कृतकों को साथ लिए सुन्दर-शुभ अथवा पाप-अशुभ गतिरूप परभव को जाता है ॥२४॥
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