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ती सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वादश अध्ययन [१३४
ते घोररूवा ठिय अन्तलिक्खे, असुरा तहिं तं जणं तालयन्ति ।।
ते भिन्नदेहे रुहिरं वमन्ते, पासित्तु भद्दा इणमाहु भुज्जो ॥२५॥ आकाश में स्थित भयंकर रूप और असुरभाव वाले यक्ष उन कुमारों को प्रताड़ित करने लगे। उन अदृश्य प्रहारों से विप्रकुमारों के क्षत-विक्षत शरीर और उन्हें रक्त-वमन करते हुए देखकर भद्रा ने पुनः कहा ॥२५॥
Present, yet hidden in sky, having ferocious frame and ill-feelings the Yakşas began to beat those brāhmaṇa youngsters. Due to the invisible strokes the bodies of brāhamana youngsters became torned and they began to vomit blood. Seeing this Bhadrā spoke thus-(25)
गिरिं नहेहिं खणह, अयं दन्तेहिं खायह ।
जायतेयं पाएहिं हणह, जे भिक्खुं अवमन्नह ॥२६॥ जो लोग साधु का अपमान करते हैं, वे नाखूनों से पर्वत खोदते हैं, दाँतों से लोहा खाते हैं, पैरों से अग्नि को कुचलते हैं ॥२६॥
Those who insult a saint, they dig the mountain by nails, cut iron by teeth, crush fire by bare feet. (26)
आसीविसो उग्गतवो महेसी, घोरव्वओ घोरपरक्कमो य ।
अगणिं व पक्खन्द पयंगसेणा, जे भिक्खुयं भत्तकाले बहेह ॥२७॥ ये महर्षि आशीविष (लब्धि सम्पन्न) हैं, उग्र तपस्वी, घोर व्रती और महापराक्रमी हैं। जो व्यक्ति भिक्षा के समय भिक्षु को व्यथित करते हैं; वे पतंगों के समान अग्नि में कूदते हैं ॥२७॥
This great sage is endowed with aśīvişa exalt or mighty like a martial poisonous snake, rigorous penancer, deep rooted in vows and mightily strong. Who give pain a mendicant a1 his begging hour they are like moths attacking fire. (27)
सीसेण एवं सरणं उवेह, समागया सव्वजणेण तुब्भे ।
जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा, लोगं पि एसो कुविओ डहेज्जा ॥२८॥ यदि तुम लोग अपना जीवन तथा धन सुरक्षित चाहते हो तो सिर झुकाकर सभी इनकी शरण ग्रहण करो। ये मुनि यदि क्रोधित हो गये तो सम्पूर्ण संसार को भस्म कर सकते हैं ॥२८॥
If you want your life and possessions safe then submit him with bowed down heads. Il the anger of this great sage aroused, he can consume the whole world. (28)
अवहेडिय पिट्ठसउत्तमंगे, पसारियाबाहु अकम्मचेट्टे ।
निब्भेरियच्छे रुहिरं वमन्ते, उड्ढे मुहे निग्गय-जीह-नेत्ते ॥२९॥ मुनि हरिकेशबल को पीटने वाले छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गये थे। उनकी बाहुएँ फैल गई थीं और वे निश्चेष्ट हो गये थे तथा उनकी आँखें खुली की खुली रह गई थीं। उनके मुखों से रक्त निकलने लगा था, मुँह ऊपर को हो गये थे और जिह्वाएँ बाहर की ओर निकल आई थीं ॥२९॥
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