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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वादश अध्ययन [१२२
देवायु पूर्ण कर वह मृतगंगा के किनारे हरिकेश गोत्रीय चाण्डालों के अधिपति ‘बलकोट्ट' नामक चाण्डाल की पत्नी गौरी के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम 'बल' रखा गया।
यही बालक आगे चलकर हरिकेशबल कहलाया।
पूर्वजन्म में किये गये जातिमद और रूपमद के कारण उसका जन्म चाण्डालकुल में हुआ तथा उसका शरीर भी काला-कलूटा, बेडौल और कुरूप था। ज्यों-ज्यों वह बड़ा हुआ उसके स्वभाव में उग्रता बढ़ती गई। क्रोधी, झगड़ालू और कटुभाषी बन गया। शरीर की कुरूपता और स्वभाव की उग्रता-करेला और नीम चढ़ा वाली कहावत चरितार्थ हो गई। बस्ती के सभी लोगों, साथी बालकों और यहाँ तक कि माता-पिता की आँखों में भी कण्टक सा खटकने लगा।
एक बार बस्ती के सभी लोग उद्यान में वसन्तोत्सव मना रहे थे। बालक खेल रहे थे। हरिकेशबल ने उनके साथ खेलने का प्रयत्न किया तो खेल में किसी बात पर क्रुद्ध होकर वह अपशब्द बोलने लगा, गाली बकने लगा तो अन्य बालकों ने उसे निकाल दिया। वह उपेक्षित-सा एक ओर बैठ गया।
सभी लोग खुशियाँ मना रहे थे और हरिकेशबल अकेला बैठा उन्हें घूर रहा था।
तभी एक विषधर सर्प निकला। लोगों ने उसे बैंत-लाठियों से उसी क्षण मार दिया। कुछ समय बाद एक निर्विष सर्प (दुमुही-अलसिया) निकला। उसे देखकर लोगों ने कहा-'अरे यह तो विष रहित है, किसी को काटता नहीं। इसे मारने से क्या लाभ ? पकड़कर दूर छोड़ आओ।' और कुछ लोग उस निर्विष सर्प को दूर छोड़कर पुनः उत्सव क्रीड़ा में निमग्न हो गये। ____ हरिकेशबल भी इस घटना को देख रहा था। उसका विचार प्रवाह बहने लगा-प्राणी अपने ही दोषों के कारण दुःख पाता है, समाज का तिरस्कार सहता है। लोगों ने विषधर सर्प को मार दिया और विषहीन को नहीं मारा। मैं भी अपनी कड़वी जुबान और दुर्व्यवहार के कारण उपेक्षित बना हुआ हूँ। यदि इन दोषों को छोड़ दूं तो सबका प्रिय बन जाऊँ। लेकिन मुझमें ये दोष आये ही क्यों ? इसका क्या कारण है........ ___यों सोचते-सोचते हरिकेशबल का चिन्तन गहरा हुआ। उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। पूर्व के दो जन्म (सोमदत्त विप्र और स्वर्ग के देव भव) उसके स्मृति पटल पर चलचित्र के समान तैर गये।
उसी क्षण उसे संसार और सांसारिक संबंधों तथा भोगोपभोगों से विरक्ति हो गई, निम्न कुल में जन्म होने का तथा कुरूपता एवं उग्र स्वभावी होने का कारण भी ज्ञात हो गया। ___ वह वहाँ से उठकर चल दिया। किसी श्रमण के पास पहुँचकर भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। शुद्ध श्रामण्य-मुनिधर्म का पालन करने लगा। चाण्डाल हरिकेशबल अब मुनि हरिकेशबल बनकर ग्रामानुग्राम विहार करने लगे। उनकी तपश्चर्या इतनी उच्चकोटि पर पहुँच गई कि देवता भी उन्हें नमन करने लगे, पूज्य और आराध्य मानने लगे तथा सेवा में तत्पर रहने लगे।
ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे वाराणसी नगरी में आये। उद्यान में अवस्थित यक्षमन्दिर में मासखमण की प्रतिज्ञा धारण कर कायोत्सर्ग में लीन हो गये। उनके उत्कट तप के प्रभाव से प्रभावित यक्षराज तिन्दुक उन्हें अपना आराध्य मानने लगा।
किसी दिन नगरनरेश कौशलिक की पुत्री भद्रा अपनी सखियों सहित यक्ष की पूजा के लिए यक्षमन्दिर में आई। यक्ष-प्रतिमा की प्रदक्षिणा करते हुए उसकी दृष्टि एक वृक्ष के नीच खड़े कायोत्सर्ग-लीन मुनि हरिकेशबल पर पड़ी। मुनि की कुरूपता, मलिन शरीर और वस्त्रों को देखकर राजकुमारी भद्रा का हृदय घृणा से भर गया। ग्लानि में भरकर उसने मुनि के मुँह पर थूक दिया।
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