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७३] सप्तम अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र ,
वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया ।।
उवेन्ति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥२०॥ विविध परिमाण (प्रकार) वाली शिक्षाओं को धारण कर जो मनुष्य घर में रहकर भी सुव्रती हैं, सुव्रतों का पालन करते हैं, वे पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं; क्योंकि सभी प्राणी कर्म-सत्य होते हैं। कृत कर्मों का फल अवश्य पाते हैं ॥२०॥
Those persons, who practise various types of religious instructions (trainings) and exercising various virtues become pious householders, take birth again as man. Because karma is true. All beings must reap the fruits of their actions. (20)
जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलियं ते अइच्छिया ।
सीलवन्ता सवीसेसा, अद्दीणा जन्ति देवयं ॥२१॥ किन्तु जिन मानवों की शिक्षा विविध परिमाण वाली और व्यापक है-विशाल है, तथा वे शीलवान और उत्तरोत्तर गुण-प्राप्ति की विशेषता से युक्त हैं, दीनता रहित हैं, वे मूलधन रूप मनुष्यत्व से आगे बढ़कर देवत्व को प्राप्त करते हैं ॥२१॥
But the persons who practise various types of religious vast instructions eminently with discipline and extra merit and are magnificent they attain godhood going upward from human birth. (21)
एवमद्दीणवं भिक्खं, अगारिं च वियाणिया ।
कहण्णु जिच्चमेलिक्खं, जिच्चमाणे न संविदे ? ॥२२॥ ... इस प्रकार दीनता रहित भिक्षु और गृहस्थ (महाव्रती तथा अणुव्रती साधक) को लाभ प्राप्त करते देखकर कौन विवेकी व्यक्ति उस लाभ को गँवाएगा और उस लाभ को गँवाता हुआ कौन पश्चात्ताप नहीं करेगा? ॥२२॥
When a man knows thus that magnificent mendicant and virtuous householder (practisers of full and partial vows) attaining such gains, then no person having discretion will lose such gain and losing such extra gain who will not repent? (22)
जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देण समं मिणे ।
एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए ॥२३॥ के कामभोगों के समक्ष मनुष्य के कामभोग ऐसे ही क्षुद्र हैं, जैसे समुद्र की अपेक्षा कुशाग्र पर टिका मन्तु क्षुद्र होता है ॥२३॥
drop of dew at the top of a blade of kusa-grass dwindles down to naught when with the vast and deep ocean filled with enormous quantity of water, so do the of men compared with the pleasures of gods. (23)
कुसग्गमेत्ता इमे कामा, सन्निरुद्धमि आउए । कस्स हेउं पुराकाउं, जोगक्खेमं न संविदे ? ॥२४॥
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