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________________ राजमहल की अद्भुत शोभा देखकर वह सीधासादा भील युवक भौंचक्का-सा रह गया। राजा ने उसकी मालिश करवाई, स्नान कराया, सुन्दर मुलायम कपड़े पहनाये । भोजन का समय जब हुआ तब रत्नजटित सोने के थालों में अनेक प्रकार के स्वादिष्ट पकवान उसे परोसे गये । शीतल मधुर पेय पिलाये । भील के लिए यह सारी बातें इन्द्रजाल के समान ही थीं। भोजन के बाद राजा ने उसे अपने महल का शेष भाग भी दिखाया, जिसे देख-देखकर वह अपना भान ही भूल बैठा और उसे ऐसा अनुभव हुआ मानो वह किसी जादू नगरी अथवा परीलोक में ही सैर कर रहा हो । उसके लिए यह अपने जीवन का प्रथम अनुभव था, जिसकी कल्पना भी उसने कभी न की होगी। आनन्द मनाते हुए दो-चार दिन देखते-देखते बीत गये । किन्तु उसके बाद उसे अपने घर और परिवार की याद सताने लगी। उसे याद आने लगे अपने वे पर्वत और जंगल के कन्द-मूल और फल, वह स्वतन्त्रता और शुद्ध वायु । इसके अतिरिक्त उसके मन में अपने माता-पिता तथा अन्य बंधु - बान्धवों को इस विलक्षण सुख और आनन्द का अनुभव बताने की तीव्र लालसा भी जाग्रत हो उठी। बेचारा पहाड़ी भील तो था ही, नगर-सभ्यता से उसका क्या लेना-देना? अतः शिष्टता - अशिष्टता का कुछ भी विचार किये बिना, वह बिना किसी से कहे, बिना राजा से मिले, अपनी लकुटिया उठाकर जंगल की राह चल पड़ा। एक नवीन आनन्दानुभूति के कारण उसके पैर पृथ्वी पर नहीं पड़ रहे थे। हवा में उड़ता हुआ-सा वह जंगलों में जा पहुँचा। अपने स्वजन - साथियों से उसने सारी घटना का और जो कुछ भी उसने देखा, अनुभव किया, उसका वर्णन करने लगा । उत्सुक भीलों की भीड़ लग गई। उसने क्या देखा, क्या खाया, कैसा स्वाद था, कैसे रहा इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देते-देते वह आखिर थक गया । वस्तुओं के नाम तो उसे याद थे नहीं, प्रश्नों के उत्तर में वह इतना ही कहता रहा - " बहुत अच्छा, बहुत बढ़िया, बड़ा मजेदार था ।" वन में पाई जाने वाली अनेक वस्तुओं के नाम ले-लेकर भील उससे पूछते - "क्या ऐसा ही था ? " किन्तु वह उत्तर देता- "नहीं, इससे हजार गुना अधिक अच्छा था, लाख गुना अधिक स्वादिष्ट था वह !' और ऐसा कहते-कहते वह खुशी से नाच उठता था । कह देता था - "क्या था, कैसा था- कुछ न पूछो ! अजीब था, बहुत बढ़िया । " प्रकृति के सरल पुत्र उस भील युवक में नागरिक सौंदर्य, आनन्द तथा राजमहल के सुख और वैभव को व्यक्त करने की क्षमता नहीं थी । न ही उसके पास शब्द थे । न ही कोई उपमा थी। वह तो मन ही मन उन अनुभूतियों का आनन्द लेकर मग्न हो रहा था । उन अनुभूतियों को शब्दों द्वारा प्रकट करने में वह समर्थ नहीं था । सिद्ध भगवान को इसी प्रकार का अलौकिक आत्मानन्द तथा सुख है, जो अनुपम है। उसे किसी उपमा द्वारा बताया नहीं जा सकता । अम्बड़ परिव्राजक प्रकरण Jain Education International (335) For Private & Personal Use Only Story of Ambad Parivrajak www.jainelibrary.org
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
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