________________
९३. पहू णं भंते ! अम्मडे परिव्वायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ?
९३. भगवन् ! क्या यह अम्बड़ परिव्राजक आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित दीक्षित होकर अगार-गृहस्थ अवस्था से अनगार अवस्था - पंच महाव्रतमय श्रमण - जीवन प्राप्त करने में समर्थ है ?
93. Bhante ! Is it possible for this Ambad Parivrajak to get tonsured, renounce his household and turn anagar (homeless ascetic) to observe the five great vows of Shraman life?
अम्बड़ का आचार-विचार
९४. णो इणट्टे समट्ठे, गोयमा !
अम्मडे परिव्वाये समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव ( उवलद्धपुण्णपावे, आसवसंवर—निज्जर-किरिया- अहिगरण - बंध - मोक्ख - कुसले, असेहज्जे, देवासुर - नागसुवण्ण - जक्ख - रक्खस - किण्णर - किंपुरिस - गरुल - गंधव्व - महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिक्कंखिए, निव्वितिगिच्छे, लद्धट्ठे, गहियट्ठे, लट्टे, गहियट्टे, पुच्छियडे, पुच्छियट्ठे, अभिगयट्ठे, विणिच्छियट्टे, अट्ठमिंजपेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठे अयं परमट्ठे, सेसे अणट्टे, चाउद्दसमुद्दिट्ठ- पुण्णमासीणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेत्ता समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं, वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं, ओसहसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिला भेमाणे) अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।
णवरं ऊ सिय-फलिहे, अवंगुयदुवारे, चियत्तंतेउर - घरदारपवेसी, एयं णं बुच्चइ । ९४. गौतम ! ऐसा सम्भव नहीं है अर्थात् वह अनगार धर्म में दीक्षित नहीं होगा ।
अम्बड़ परिव्राजक श्रमणोपासक है, जिसने जीव, अजीव यावत् पुण्य-पाप, संवरनिर्जरा आदि पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह समझ लिया है। [ वह दूसरे की सहायता का अनिच्छुक है। वह देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित नहीं किया जा सकता है। निर्ग्रन्थ प्रवचन में वह शंकारहित, आकांक्षारहित, संशयरहित, धर्म के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किया
अम्बड़ परिव्राजक प्रकरण
Jain Education International
(261)
For Private & Personal Use Only
Story of Ambad Parivrajak
www.jainelibrary.org