________________
That too is acceptable only for washing hands, feet, bowl or spoon and not for drinking or bathing.
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रस्थ व आढक प्रमाण का उल्लेख है । अनुयोगद्वारसूत्र, सूत्र ३२१, पृ. ६० के अनुसार एक प्रस्थ ( पत्थ) लगभग ६४ पल = २५६ तोला = २.९८५ कि. ग्रा. । ४ प्रस्थ = एक आढक अर्थात् ११.९४ कि. ग्रा. का होता है। चरक कृत भाव प्रकाश मान परिभाषा प्रकरण के अनुसार एक प्रस्थ लगभग ६४ तोला होता है। पुराने नाम के अनुसार ६४ तोला एक सेर होता था । तथा चार प्रस्थ ४ सेर एक आढक माना गया है। (देखें औपपातिकसूत्र, पृष्ठ १३१, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर )
=
Elaboration-This aphorism mentions about the weight measures Adhak and Prasth. According to Anuyog-dvar Sutra (A. 321, p.60) one Prasth is about 64 pal or 256 Tolas or 2.985 kgs. One Adhak is equal to 4 Prasth or 11.94 kgs. However, according to Maan Paribhasha Prakaran chapter of Bhava Prakash by Charak one Prasth is approximately 64 Tolas which was one Seer of old Indian measure (0:74 kgs.). By this measure one Adhak is four Prasth (2.98 kgs.). (see Aupapatik Sutra, Agam Prakashan Samiti, Beawar, p. 131)
८१. ते णं परिव्वायगा एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउणंति, बहूइं वासाई परियायं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ता उववत्तारो भवंति । तर्हि तेसिं गई, तर्हि तेसिं ठिई। दस सागरोवुमाई टिई पण्णत्ता, सेसं तं चैव ।
• उपपातं वर्णनं समत्तं •
८१. वे परिव्राजक इस प्रकार के आचार का पालन करते हुए बहुत वर्षों तक परिव्राजक - पर्याय में विचरते हैं। बहुत वर्षों तक वैसा आचार पालते हुए मृत्यु समय आने पर देह त्यागकर उत्कृष्ट ब्रह्मलोक कल्प तक में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनकी तदनुरूप गति और स्थिति होती है। उनकी स्थिति या आयुष्य दस सागरोपम कहा गया है। शेष वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए।
उपपात वर्णन समाप्त •
81. They spend years as Parivrajaks following the Parivrajak code. When time comes they abandon their earthly bodies and are born as gods in the lofty Brahmalok Kalp. Their state (gati) is according to their respective status. Their life-span there is ten Sagaropam (a metaphoric unit of time). Other details are same as already mentioned.
• END OF UPAPAT CHAPTER •
औपपातिकसूत्र
Jain Education International
(248)
For Private & Personal Use Only
Aupapatik Sutra
www.jainelibrary.org