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________________ ७६. ग्राम सन्निवेश आदि में जो अनेक प्रकार के परिव्राजक होते हैं, जैसे(१) सांख्य, (२) योगी, (३) कापिल, (४) भार्गव, (५) हंस, (६) परमहंस, (७) बहूदक, तथा (८) कुटीचर (कुटीव्रत) (चार प्रकार के यति) एवं कृष्ण परिव्राजक आदि । उनमें आठ ब्राह्मण परिव्राजक - ब्राह्मण जाति में दीक्षित परिव्राजक होते हैं, जो इस प्रकार हैं- (१) कर्ण, (२) करकण्ट, (३) अम्बड, (४) पाराशर, (५) कृष्ण, (६) द्वैपायन, (७) देवगुप्त, तथा (८) नारद । उनमें आठ क्षत्रिय परिव्राजक - क्षत्रिय जाति में से दीक्षित परिव्राजक होते हैं, जैसे(१) शीलधी, (२) शशिधर (शशिधारक), (३) नग्नक, (४) भग्नक, (५) विदेह, (६) राजराज, (७) राजराम, तथा (८) बल । UPAPAT OF PARIVRAJAKS 76. In places like gram, aakar,... and so on up to... sannivesh there live a variety of Parivrajaks-(1) Samkhya, (2) Yogi, (3) Kapil, (4) Bhargava, (5) Hamsa, (6) Param-hamsa, (7) Bahudak, and (8) Kutichar. Among these their are eight Brahmin Parivrajaks or the initiates from the Brahmin clans - ( 1 ) Karn, (2) Karkant, (3) Ambad, (4) Parashar, (5) Krishna, (6) Dvaipayan, (7) Devagupt, and (8) Narad. Among these are also eight Kshatriya Parivrajaks or the initiates from the Kshatriya clans – ( 1 ) Shiladhi, (2) Shashidhar (Shashidharak), (3) Nagnak, (4) Bhagnak, (5) Videha, (6) Rajaraj, (7) Rajarama, and (8) Bal. विवेचन - सूत्र ७५ में ऐसे निर्ग्रन्थ श्रमणों का वर्णन है, जो प्रव्रजित होकर भी संयम की शुद्ध निर्दोष आराधना नहीं कर पाते थे। अब इस सूत्र में परिव्राजकों (ब्राह्मण परम्परा में दीक्षित श्रमणों) का कथन है । परिव्राजक श्रमण, ब्राह्मण-धर्म के लब्धप्रतिष्ठित पण्डित होते थे । वशिष्ठ धर्मसूत्र के अनुसार वे सिर मुण्डन कराते थे। एक वस्त्र या चर्मखण्ड धारण करते थे। गायों द्वारा उखाड़ी हुई घास से अपने शरीर को ढँकते थे और जमीन पर सोते थे । वे आचारशास्त्र और दर्शनशास्त्र पर विचार चर्चा करने के लिए भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण करते थे। वे षडंगों के ज्ञाता होते थे । परिव्राजक का शाब्दिक अर्थ है - सब कुछ त्यागकर भ्रमण करने वाला। परिव्राजक चारों ओर भ्रमण करने वाले संन्यासियों को कहते हैं। ये अपना समय ध्यानशास्त्र, चिन्तन और शिक्षण आदि में व्यतीत करते थे। वानप्रस्थ आश्रम के बाद परिव्राजक होने का विधान है। उन परिव्राजकों में कितने ही | परिव्राजकों का परिचय इस प्रकार है औपपातिकसूत्र Jain Education International (238) For Private & Personal Use Only Aupapatik Sutra www.jainelibrary.org
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
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