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समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊ हल्ले उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठाए उट्ठित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महीवारं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे, णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी
६३. तब उन भगवान गौतम के मन में श्रद्धायुक्त जिज्ञासा उत्पन्न हुई, संशय- सुने हुए विषय में शंका हुई, कुतूहल एवं उत्कण्ठा उत्पन्न हुई । पुनः उनके मन में श्रद्धा का भाव उमड़ा, संशय उभरा, कुतूहल समुत्पन्न हुआ । तब वे आसन से उठे, उठकर जहाँ भगवान महावीर थे वहाँ आये। आकर भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण - प्रदक्षिणा की, वन्दना - नमस्कार किया। भगवान के न अधिक समीप, न अधिक दूर यथोचित स्थान पर स्थित हो सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए उनकी पर्युपासना करते हुए बोले
THE CURIOSITY
63. Then in reverend Gautam arose a desire to know, a doubt in what he had learnt, a curiosity for the unknown and an intense longing for knowledge; again in him grew a desire to know, a doubt in what he had learnt, a curiosity for the unknown and an intense longing for knowledge. He got up from his seat and came where Bhagavan Mahavir was seated. He went around Bhagavan clockwise three times, paid homage and obeisance, commenced his worship and put forth his question
पापकर्म का बन्ध
६४. जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पsिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते पावकम्मं अण्हाइ ?
हंता अण्हाइ ।
६४. (प्रश्न) भगवन् ! वह जीव, जो असंयत है - (जिसने संयम की आराधना नहीं की) जो अविरत है - (हिंसा आदि से विरत नहीं हुआ है) जिसने प्रत्याख्यान द्वारा पापकर्मों को रोका नहीं (पापों का त्याग नहीं किया) है - जो सक्रिय-कायिक, वाचिक तथा मानसिक क्रियाएँ करता है, जो अपने को तथा औरों को पापकर्मों द्वारा एकान्ततः - सब प्रकार से दण्ड/दु:खित करता है, जो एकान्तबाल है - सर्वथा मिथ्यादृष्टि है, जो एकान्तसुप्त है
उपपात वर्णन
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