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________________ * * अभिलाषी, किल्विषिक-भांड आदि, कापालिक-खप्पर धारण करने वाले भिक्षु, करबाधित* करपीडित-राज्य के कर आदि से कष्ट पाने वाले, शांखिक-शंख बजाने वाले, चाक्रिक" चक्रधारी (कुम्हार), लांगलिक-हल चलाने वाले कृषक, मुखमांगलिक-मुँह से मंगलमय शुभ * वचन बोलने वाले या चाटुकार, वर्धमान-दूसरों के कन्धों पर बैठे पुरुष, पूष्यमाणव मागध-भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, खंडिकगण-छात्रसमुदाय, इष्ट-वांछित, कान्त* कमनीय, प्रिय-प्रीतिकर, मनोज्ञ-मनोनुकूल, मनाम-चित्त को प्रसन्न करने वाली, मनोभिराम-मन को रमणीय लगने वाली तथा हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाली वाणी से * जय विजय आदि सैकड़ों मांगलिक शब्दों से राजा का लगातार अभिनन्दन करते हुए, * स्तुति-प्रशस्ति करते हुए इस प्रकार बोलने लगे* “जन-जन को आनन्द देने वाले राजन् ! आपकी जय हो, आपकी जय हो। जन-जन के लिए कल्याण-स्वरूप राजन् ! आप सदा जय प्राप्त करें। आपका कल्याण हो। जिन्हें नहीं जीता है, उन पर विजय प्राप्त करें। जिनको जीत लिया है, उनका पालन करें, उनके बीच निवास करें। देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागों में धरणेन्द्र की तरह, तारों में चन्द्रमा की तरह, मनुष्यों में चक्रवर्ती भरत की तरह आप अनेक वर्षों तक, सैकड़ों वर्षों तक, हजारों वर्षों तक, लाखों वर्षों तक सब प्रकार के दोष या विघ्नरहित रहते हुए अथवा संपत्ति, परिवार आदि से सर्वथा सम्पन्न, प्रसन्न रहते हुए परम उत्कृष्ट आयु प्राप्त करें। आप चिरंजीवी हों। * आप अपने इष्ट-प्रिय जन सहित चम्पा नगरी के तथा अन्य बहुत से ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संवाह, सन्निवेश, इन सबका आधिपत्य, इन सबको पौरोवृत्य-नेतृत्व, स्वामित्व, भर्तृत्व-प्रभुत्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, * आज्ञेश्वरत्व-जिसे आज्ञा देने का सर्व अधिकार होता है, ऐसा सेनापतित्व, इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करते हुए विचरें। आप निरन्तर नृत्य, गीत, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य-तुरही एवं घनमृदंग-बादल जैसी आवाज करने वाले मृदंगों से निकलती सुन्दर ध्वनियों से आनन्द अनुभव करते हुए, निर्विघ्न रूप में विपुल भोग भोगते हुए सुखी रहें।' यों कहकर * उन्होंने जय-घोष किया। HAILING MASSES 53. As king Kunik passed through the city of Champa he was greeted with continuous hails of victory and hundreds of auspicious words in coveted, pleasant, lovable, likable, joyous, desirable and blissful voice by masses of people among whom were many who * औपपातिकसूत्र (180) Aupapatik Sutra * * * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
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