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उसके बाद बहुत से दण्डी - दण्डधारी, मुण्डी - मुण्डित सिर वाले, शिखण्डी - शिखाधारी, जटी- जटाधारी, पिच्छी-मोर पंखधारी, हासकर - विदूषक, डमरकर - हल्लेबाज, चाटुकर- प्रिय वचन बोलने वाले, वादकर - वादविवाद करने वाले, कन्दर्पकर - शृंगारी चेष्टाएँ करने वाले, दबकर - मजाक करने वाले, कौत्कुचिक - भांड आदि, क्रीड़ाकर - खेल-तमाशे करने वाले, इनमें से कतिपय तालियाँ पीटते हुए अथवा वाद्य बजाते हुए, गाते हुए, हँसते हुए, नाचते हुए, बोलते हुए, सुनाते हुए, रक्षा करते हुए, इधर-उधर निरीक्षण करते हुए तथा 'जय'जय' शब्द बोलते हुए यथाक्रम आगे बढ़ने लगे ।
उनके पीछे जात्य-ऊँची नस्ल के एक सौ आठ घोड़े एक के पीछे एक चलने लगे। वे वेगवान, शक्तिमान और स्फूर्तिमान एवं तरुण थे । हरिमेला नामक वृक्ष की कली तथा मल्लिका- चमेली के पुष्प जैसी उनकी आँखें थीं। तोते की चोंच की तरह वक्र- टेढ़े पैर उठाकर वे शान से चल रहे थे । वे बिजली जैसे चपल, चंचल चाल लिए हुए थे । गड्ढे आदि लाँघना, ऊँचा कूदना, तेजी से सीधा दौड़ना, चतुराई से दौड़ना, भूमि पर तीन पैर टिकाना, जयिनी नामक सबसे तेज गति से दौड़ना, चलना इत्यादि विशिष्ट गति करने में वे निपुण थे। उनके गले में पहने हुए श्रेष्ठ आभूषण हिलते-डुलते अच्छे लग रहे थे। मुख के आभूषण, अवचूलक-मस्तक पर लगी हुई कलंगी, दर्पण की आकृति वाले विशेष अलंकार तथा मुखबन्ध (अभिलान) या मोहरे बड़े शोभित हो रहे थे। उनके कटिभाग (कमर) चामरदण्डों
भोशित थे । चतुर, तरुण सेवक उन्हें थामे हुए थे ।
घोड़ों के पीछे अनुक्रम से एक सौ आठ हाथी चलने लगे। वे हाथी कुछ मदमस्त एवं कुछ-कुछ उन्नत थे। उनके दाँत कुछ-कुछ बाहर निकले हुए थे तथा उज्ज्वल, श्वेत दाँतों के पिछले भाग थोड़े विशाल थे, उन पर सोने के खोल चढ़े थे । वे हाथी स्वर्ण, मणि तथा रत्नों के आभरणों से शोभित हो रहे थे । सुशिक्षित, सुयोग्य महावत उन्हें चला रहे थे ।
उसके बाद एक सौ आठ रथ यथाक्रम चलने लगे। उन रथों पर छत्र, ध्वज - (गरुड़ आदि चिन्हों से युक्त झण्डे ) पताका - (चिह्नरहित झण्डे ) व घण्टे लगे थे, उन पर सुन्दर तोरण बँधे हुए थे। वे नन्दिघोष - बारह प्रकार की वाद्यध्वनि [ ( 9 ) भेरी, (२) मुकुन्द, (३) मृदंग, (४) कडंब, (५) झालर, (६) हुडक्क, (७) कंसाल, (८) काहल, (९) तलिमा, (१०) वंश, (११) शंख, एवं (१२) पटह - ढोल | ये बारह प्रकार के वाद्य हैं। इनकी सम्मिलित ध्वनि नन्दिघोष कही जाती है ] से युक्त थे। उन पर छोटी-छोटी घण्टियों से युक्त जालियाँ लगी थीं। रथों के पहियों के घेरों पर लोहे के पट्टे चढ़ाये हुए थे। पहियों की धुराएँ सुन्दर, सुदृढ़,
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