________________
* कर्मरूपी कठोर पाषाणों की टक्कर से उठती हुई तरंगों से वह चंचल है। वह तोयपृष्ठ साक्षात्
मृत्यु जैसा है।
यह संसार रूप समुद्र कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ रूप पाताल (जिसकी तलभूमि में कषाय रूप पाताल कलश हैं) से परिव्याप्त है। इस (समुद्र) में लाखों जन्मों में अर्जित पापमय भयंकर जल संचित है। असीम इच्छाओं से मलिन बुद्धिरूपी वायु के झौंकों से ऊपर उछलते 2 सघन जल-कणों के कारण अंधकारयुक्त हो रहा है तथा आशा एवं पिपासारूपी उजले झागों a की तरह वह धवल उज्ज्वल-सा दीखता है। ___ संसार-सागर में मोह रूप बड़े-बड़े आवत-जलमय विशाल चक्र हैं। उनमें भोग रूप भँवर-जल के छोटे गोलाकार घुमाव हैं। दुःख रूप जल भ्रमण करता हुआ-चक्र काटता हुआ अत्यन्त चंचल हो रहा है, ऊपर उछलता है, नीचे गिरता है। इस समुद्र में प्रमाद रूप प्रचण्ड
भयानक, अत्यन्त दुष्ट-हिंसक जल जीव हैं। इन जीवों द्वारा आहत हुए संसारी जीव ऊपर * उछलते हुए, नीचे गिरते हुए, बुरी तरह चीखते-चिल्लाते हैं। मानो यह उसका भयावह घोष
या गर्जन है, यह भयानक क्रन्दन की प्रतिध्वनि है।। * अज्ञानरूपी मत्स्य भवसागर में घूम रहे हैं! अनुपशान्त इन्द्रिय रूप विकराल महामच्छों
के निरन्तर चलते रहने से जल क्षुब्ध हो रहा है-उछल रहा है, नृत्य-सा कर रहा है, विद्युत् * वेग से चंचलतापूर्वक चल रहा है, घूम रहा है।
यह संसार रूप सागर संयम में अरुचि, रूप अरति, भय, विषाद, शोक तथा मिथ्यात्व रूप पर्वतों से अत्यन्त विकट बना हुआ है। अनादिकाल से चले आ रहे कर्म तथा उनसे
उद्भूत क्लेश रूप रागादि कीचड़ के कारण अत्यन्त दुस्तर बना हुआ है। यह देवगति, * मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति तथा नरकगति में निरन्तर परिभ्रमण रूप कुटिल परवर्त-दिग्भ्रान्त
करने वाले विकट ज्वार सहित है। चार गतियों के रूप में इसके चार अन्त-किनारे हैं। यह विशाल, अगम्य-अगाध, रौद्र तथा भयानक दिखाई देने वाला है। THE OCEAN OF MUNDANE EXISTENCE
32. (a) They (anagars) were afraid and alarmed of this mundane world. In other words, every moment they were busy thinking how to cross this cycle of rebirths in four dimensions.
This world is an ocean overflowing with vast and turbulent water body that is the extreme misery of birth, dotage and death.
Waves in the form of meeting and separation (of desired and undesired things, conditions and people) are emerging out of that
*
समवसरण अधिकार
(125)
Samavasaran Adhikar
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org,