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भीया, जम्मण - जर - मरण - करणगंभीर - दुक्ख - पक्खुब्भिय पउरसलिलं । संजोग - विओग - वीचिचिंता कलुणाविलविय - लोभकलकलंत - बोलबहुलं ।
पसंग - पसरिय - वह - बंध - महल्लविउलकल्लोल
अवमाणणफेण - तिव्व - खिंसण - पुलंपुलप्पभूय - रोग - वेयणपरिभव - विणिवायफरुसधरिसणा-समावडियकढिणकम्मपत्थर-तरंगरंगंत -निच्चमच्चुभय-तोयपठ्ठे ।
भवसयसहस्स– कलुसजल - संचयं,
कसाय - पायालसंकुलं, पइभयं, अपरिमियमहिच्छ - कलुसमइ - वाउवेगउधुम्ममाण - दगरयरयंधआर - वरफेणपउरआसापिवासधवलं ।
मोहमहावत्त- भोग- भममाण - गुप्पमाणुच्छलंत - पच्चोणियत्त - पाणिय- पमायचंडबहुदुट्ठ-सावय समाहयुद्धायमाण - पब्भार - घोरकंदिय - महारवरवंत भेरवरवं । अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थ - अणिहुविंदियमहामगर - तुरियचरियखोखुब्भमाणनच्चंत - चवलचंचलंत - धुधुम्मंतजलसमूहं ।
अरइ - भय - विसय - सोग - मिच्छत्त- सेलसंकडं, अणाइसंताणकम्मबंधण-किलेसचिक्खिल्लसुदुत्तरं, अमर - णर - तिरिय - णरय - गइगमण - कुडिलपरियत्तविउलवेलं, चउरंतं, महंतमणवदग्गं, रुद्दं संसारसागरं भीमं दरिसणिज्जं ।
३२. (क) वे (अनगार) संसार के भय से उद्विग्न एवं चिन्तित थे - अर्थात् चतुर्गतिमय संसार चक्र को कैसे पार कर पायें - इस चिन्तन में सर्वदा व्यस्त थे ।
यह संसार एक समुद्र है। जन्म, जरा तथा मृत्युरूपी घोर दुःख रूप - छलछलाते उछलते अपार जल से यह भरा है।
उस जल में संयोग-वियोग के रूप में लहरें उत्पन्न हो रही हैं । चिन्तापूर्ण प्रसंगों से वे लहरें दूर-दूर तक फैलती जा रही हैं । वध (मृत्यु) और बन्धन (परवशता ) रूप विशाल, विपुल कल्लोलें उठ रही हैं, यह (समुद्र) करुण विलपित - शोकपूर्ण विलाप तथा लोभ की कलकल करती तीव्र ध्वनियों से गर्जनायुक्त हैं।
जल का ऊपरी भाग तोयपृष्ठ - अपमान या तिरस्कार रूप झागों से ढँका है। दुःसह निन्दा, निरन्तर अनुभव होती रोगजनित वेदना, पराभव - औरों से प्राप्त होता अपमान, विनिपातनाश, तिरस्कार व निष्ठुर वचनों द्वारा प्राप्त निर्भर्त्सना, तथा ज्ञानावरणीय आदि आठ
औपपातिकसूत्र
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