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कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात नहीं होता, मेरी आत्मा उपपात (पुनर्जन्म) लेने वाली है अथवा मेरी आत्मा
पुनर्जन्म लेने वाली नहीं है। * इसी आदि सूत्र वचन का विस्तार सम्पूर्ण औपपातिक सूत्र में दृष्टिगोचर होता है। औपपातिक शब्द ही
o आचारांग के साथ इस उपांग का सम्बन्ध सूचित करता है। आचार्य अभयदेव सूरि अपनी वृत्ति में लिखते * हैं-उपपतनं उपपातः। देव-नारक-जन्म-सिद्धि गमनं च। अतः तमधिकृत्य कृतमध्ययनमौपपातिकम्-उपपात * का अर्थ है उत्पत्ति या जन्म। देवता, नारक, मानव आदि का जन्म तथा आत्मा का सिद्धिगमन, यह सब विषय 'उपपात' शब्द से ग्रहीत होते हैं। अतः उपपात का विषय जिसमें है, वह औपपातिक सूत्र है।
इस प्रकार विषय का आन्तरिक विश्लेषण करने पर प्रथम अंग आचारांग के साथ इस उपांग का सीधा सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है। प्रतिपाय विषय
औपपातिक सूत्र के दो विभाग हैं-प्रथम, समवसरण तथा दूसरा, उपपात। प्रथम समवसरण विभाग में भगवान महावीर का, उनके परम भक्त राजा कूणिक का, चम्पानगरी का, कूणिक की दर्शन यात्रा एवं भगवान के श्रमणों का तथा भगवान की देशनान्तर्गत बारह प्रकार के तपों का अत्यन्त विस्तार के साथ वर्णन है। यह वर्णन बड़ा ही रोचक शैली व साहित्यिक अलंकार पूर्ण भाषा में है। __ चम्पापति कूणिक का वर्णन इस सूत्र में भी है और निरयावलिका में भी। हमने निरयावलिका के परिशिष्ट में श्रेणिक एवं कूणिक से सम्बन्धित पूरा वर्णन दिया है। अतः यहाँ इस विषय में अधिक कुछ नहीं लिखा है। । दूसरे विभाग में उपपात-अर्थात् किसका जन्म कहाँ होगा। इस विषय पर गणधर गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए विविध प्रकार के मनुष्यों के स्वभाव, शील व आचार का वर्णन करके उसके अनुसार उनका आगामी भव कहाँ होगा। उनकी आत्मा किस गति में उत्पन्न होगी, इस जिज्ञासा का समाधान है। यह विषय बहुत ही विस्तृत है। इसके अन्तर्गत उस युग में विविध प्रकार का तप करने वाले परिव्राजकों के विभिन्न मतों व शाखाओं का बड़ा ऐतिहासिक रोचक वर्णन है। पता चलता है, उस युग में परिव्राजक के रूप में कितने तपस्वी, किस प्रकार का आचार-विचार रखते थे। किस प्रकार की साधना करते थे। परिव्राजकों की विभिन्न शाखाओं का जितना विस्तृत वर्णन इस सूत्र में है, इतना विस्तृत वर्णन तो परिव्राजकों की मूल वैदिक परम्परा के किसी प्राचीन ग्रन्थ में देखने को भी नहीं मिलता। __अम्बड़ परिव्राजक व उसके सात सौ शिष्यों के आचार का वर्णन पढ़ने से लगता है, यह परिव्राजक परम्परा श्रमण परम्परा के बहुत ही नजदीक थी एवं इसके साथ इनका घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। आचार में कुछ भिन्नता होते हुए भी वे परिव्राजक भगवान महावीर को ही अपना आराध्य देव मानते हैं, उन्हीं की शरण लेते हैं और उनके द्वारा प्ररूपित आचार के बहुत से नियमों का दृढ़ता के साथ पालन करते हैं। __भगवान महावीर ने भी अम्बड़ परिव्राजक को श्रेष्ठ तपस्वी माना है और अगले भवों में मोक्ष जाने की घोषणा भी की है। भगवान महावीर के प्रति उसकी अडिग आस्था थी, श्रद्धा थी। अम्बड़ अनेक प्र की चमत्कारी लब्धियों का धारक था। अवधिज्ञानी था और औद्देशिक-नैमित्तिक आहार नहीं लेता था।
Roko
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