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________________ स्वकथ्य: प्रस्तावना जैन आगम साहित्य का भारतीय साहित्य में विशिष्ट स्थान है। केवल अध्यात्म एवं तत्त्वज्ञान की दृष्टि से ही यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था व सांस्कृतिक सम्पदा को समझने के लिए, विभिन्न धार्मिक परम्पराओं व विचार धाराओं के परिज्ञान के लिए भी इसका अपना महत्त्व है। बिना जैन आगमों का अध्ययन किये, भारतीय धर्म व संस्कृति का अध्ययन अधूरा ही रहता है। उपांग नाम की सार्थकता प्राचीनकाल में अर्थात् भगवान महावीर की उपस्थिति में आगमों के दो प्रकार के वर्गीकरण थे। एक, पूर्व और अंग । पूर्वों का अध्ययन विशिष्ट बुद्धिसम्पन्न, विशेष उपधान तप करने वाले श्रमण करते थे। अंगों का अध्ययन सभी श्रमणों के लिए आवश्यक था। दूसरा, अंग प्रविष्ट तथा अंग बाह्य । अंग प्रविष्ट आगमों में दृष्टिवाद सहित १२ अंग सूत्रों की गणना थी, शेष सभी आगम अंग बाह्य थे। भगवान महावीर निर्वाण के पश्चात् आगमों का जब संकलन हुआ तो उसका वर्गीकरण एक भिन्न प्रकार से किया गया। अंग आगम तथा उपांग आगम । इसके पश्चात् मूल व छेद के रूप में भी आगमों की सूची बनाई गई । अंग सूत्र बारह थे, किन्तु दृष्टिवाद लुप्त होने के पश्चात् ग्यारह अंग ही विद्यमान रहे । उपांगों की संख्या बारह है। ‘उपांग' शब्द से यह सूचित होता है कि इनका अंगों के साथ सम्बन्ध है, किन्तु वास्तविकता यह है कि अंगों व उपांगों की विषय वस्तु में परस्पर कोई सम्बन्ध या पूरकता जैसी बात नहीं है । उपांगों का विषय प्रायः स्वतंत्र ही है। फिर इन्हें उपांग क्यों कहा गया ? यह चिन्तन का विषय है। आगमों के टीकाकार आचार्यों के मतों का समीक्षण करके व उनके विषय को समग्र रूप में हृदयंगम करके आगमों के गम्भीर ज्ञाता और विशिष्ट व्याख्याता आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने लिखा है, कि “अंगों के साथ उपांगों का प्रत्यक्ष रूप में भले ही कोई तार्किक सम्बन्ध न लगता हो, किन्तु उनकी विषय वस्तु को विशद रूप में व विस्तार पूर्वक प्रस्तुत करने की दृष्टि से अंगों के साथ उपांगों का परोक्ष सम्बन्ध जुड़ा है। इसलिए आचार्यों ने एक-एक अंग का एक-एक उपांग निश्चित किया है ।" आचारांग सूत्र प्रथम अंग है और उसका उपांग है उववाइय सुत्त ( औपपातिक सूत्र ) । प्रत्यक्ष रूप में आचारांग का विषय गहन अध्यात्म, अहिंसा, संयम, सम्यक्त्व आदि से सम्बन्धित है, जबकि औपपातिक में विविध विषयों का विस्तार पूर्ण वर्णन है । आचारांग सूत्रात्मक शैली में है । छोटी-छोटी वाक्य रचना है। जबकि औपपातिक के सूत्र विस्तृत है एवं लम्बे-लम्बे समासान्त पाठ हैं । किन्तु गहराई से विचारने पर आचारांग सूत्र का उत्थान जिस विषय से हुआ है वह है Jain Education International एवमेगेसिं णो णायं भवतिअत्थि मे आया ओववाइए णत्थि मे आया ओववाइए (7) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002910
Book TitleAgam 12 Upang 01 Aupapatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2003
Total Pages440
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_aupapatik
File Size16 MB
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