SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
Editorial *+[[10]
Page Text
________________ सम्पादकीय *+[[10]</« जैन धर्म की स्थानकवासी परम्परा में वीतराग वाणी के रूप में माने गये ३२ शास्त्र हैं और उनमें भी चार शास्त्र छेद सूत्रों के रूप में माने जाते हैं । पूज्य प्रवर आचार्य सम्राट, जैन धर्मदिवाकर परमश्रद्धेय श्री आत्माराम जी महाराज ने अनेक जैन शास्त्रों पर हिन्दी भाषा में विस्तृत टीका लिखी है । उनके साक्षात् दर्शन तो मुझे नहीं हुए परन्तु उनके द्वारा व्याख्यायित आगमों का जब-जब मुझे अध्ययन करने का अवसर मिलता है। तो मेरा रोम-रोम उनके प्रति गहन श्रद्धा, भक्ति और कृतज्ञता से भर जाता है । उनके ज्ञान ध्यान एवं उत्तम पराक्रम का जब चिन्तन मनन करता हूँ तो उनकी अपूर्व ज्ञान निधि और अप्रमत्त साधना के स्मरण से मन में एक अनिर्वचनीय उत्साह और कर्त्तव्य परायणता की भावना जागती है । इसी भावना के वशीभूत होकर सन् १६६६ में मैंने पूज्य आचार्य श्री आत्माराम महाराज द्वारा व्याख्यायित और प्रकाशित श्री नन्दीसूत्र का प्रकाशन कराया था । पूज्य गुरुदेव उत्तर भारतीय प्रवर्तक भण्डारी श्री पदमचन्द्र जी महाराज नन्दीसूत्र के प्रकाशन को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे अत्यन्त सहृदयता और अपनत्व से आशीर्वाद देते हुए कहा था कि "आपने यह अतीव उत्तम कार्य किया है ।" इस आशीर्वचन से मुझे हार्दिक प्रसन्नता और आत्मसन्तुष्टि प्राप्त हुई । गत वर्ष लुधियाना जाना हुआ और आचार्य सम्राट परम पूज्य आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के किसी ग्रन्थ को प्रकाशित करने की भावना जागृत हुई । इसी दौरान दशाश्रुत स्कन्ध ग्रन्थ की एक हस्त लिखित संस्कृत टीका की प्रति प्राप्त हुई किन्तु उसमें कुछ लेखन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002908
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrut Skandh Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy