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________________ ॐ [उ.] गंडि-कोढिक-कुणि-उयरि-कच्छुल्ल-पइल्ल-कुज्ज-पंगुल-वामण-अंधिल्लग एगचक्खु-विणिहयसप्पिसल्लग-वाहिरोगपीलियं, विगयाणि मयगकलेवराणि सकिमिणकुहियं च कदवरासिं, अण्णेसु य एवमाइएसु अमणुण्ण-पावगेसु ण तेसु समणेणं रूसियव्वं जाव ण दुगुंछावत्तिया वि लब्भा उप्पाएउं। ___ एवं चक्खिंदियभावणाभाविओ भवइ अंतरप्पा जाव चरेज्ज धम्म। १६६. द्वितीय भावना चक्षुरिन्द्रिय का संवर है। वह इस प्रकार हैॐ चक्षुरिन्द्रिय से मनोरम एवं भद्र-सुन्दर सचित्त, अचित्त और मिश्र-सचित्ताचित्त पदार्थ के रूपों को म देखकर (राग नहीं करना चाहिए)। वे रूप चाहे काष्ठ सम्बन्धी, पुस्तक या वस्त्र सम्बन्धी, चित्र सम्बन्धी, मिट्टी आदि के लेप से बनाये गये हों, पत्थर पर अंकित हों, हाथीदाँत आदि पर हों, पाँच वर्ण के और ॐ नाना प्रकार के आकार वाले हों, गूंथकर माला आदि की तरह बनाये गये हों, वेष्टन से, चपड़ी आदि के भरकर अथवा संघात से-फूल आदि की तरह एक-दूसरे को मिलाकर बनाये गये हों, अनेक प्रकार की ॐ मालाओं के रूप हों और वे नयनों तथा मन को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले हों (तथापि उन्हें + देखकर राग नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए)। 卐 इसी प्रकार वनखण्ड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर तथा विकसित नील कमलों एवं (श्वेतादि) कमलों से सुशोभित और मनोहर तथा जिनमें हंस, सारस आदि अनेक पक्षियों के जोड़े विचरण कर रहे हों, ॐ ऐसे छोटे जलाशय, गोलाकार बावड़ी, चौकोर बावड़ी, लम्बी बावड़ी, नहर, सरोवरों की कतार, सागर, जबिलपंक्ति, लोहे आदि की खानों में खोदे हुए गड्डों की पंक्ति, खाई, नदी, बिना खोदे प्राकृतिक रूप से बने ॐ सरोवर, तालाब, नहर (आदि को देखकर) अथवा उत्तम मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, ॐ चैत्य-स्मारक, देवालय, सभा, प्याऊ, आवसथ-परिव्राजकों के आश्रम, सुनिर्मित शय्या, सिंहासन आदि आसन, पालकी, रथ, गाड़ी, यान, युग्य-यानविशेष, स्यन्दन-धुंघरूदार रथ या सांग्रामिक रथ और ॐ नर-नारियों के झुंड, ये सब वस्तुएँ यदि सौम्य हों, आकर्षक रूप वाली दर्शनीय हों, आभूषणों से ऊ + अलंकृत और सुन्दर वस्त्रों से विभूषित हों, पूर्व में की हुई तपस्या के प्रभाव से सौभाग्य को प्राप्त हों तो ॐ (इन्हें देखकर) तथा नट, नर्तक, वादक, मल्ल, मुक्केबाज, विदूषक, कथावाचक, तैराक, रास करने वाले के क व वार्ता कहने वाले, चित्रपट लेकर भिक्षा माँगने वाले, बाँस पर खेल करने वाले, तूणइल्ल-तूणा बजाने वाले, तूम्बे की वीणा बजाने वाले एवं तालाचरों के विविध प्रयोग देखकर तथा बहुत से करतबों को म देखकर (आसक्त नहीं होना चाहिए)। इस प्रकार के अन्य मनोज्ञ तथा सुहावने रूपों में साधु को आसक्त में नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। है इसके सिवाय चक्षुरिन्द्रिय से अमनोज्ञ और पापजनित अशुभ रूपों को देखकर (रोष नहीं करना चाहिए)। [प्र. ] वे (अमनोज्ञ रूप) कौन-से हैं ? ज卐55555555555555555))))))))))))))))) )) ) )) ) ) 卐श्रु.२, पंचम अध्ययन : परिग्रहत्याग संवर (421) Sh.2, Fifth Chapter : Discar... Samvar 卐 牙牙牙牙牙牙牙牙%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% %% %%以 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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