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895555555555555555555555555555555 % समिए समिइसु सम्मदिट्ठी समे य जे सव्वपाणभूएसु से हु समणे, सुयधारए उज्जुए संजए सुसाहू, सरणं
सब्बभूयाणं सब्बजगवच्छले सच्चभासए य संसारंतट्टिए य संसारसमुच्छिण्णे सययं मरणाणुपारए, पारगे य ॐ सव्वेसिं संसयाणं पवयणमायाहिं अट्टहिं अट्ठकम्म-गंठी-विमोयगे, अट्ठमय-महणे ससमयकुसले य भवइ
सुहदुहणिब्बिसेसे अभिंतरबाहिरम्मि सया तवोवहाणम्मि सुटुज्जुए खंते दंते य हियणिरए ईरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणा-समिए उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण
जल्ल-परिट्ठावणियासमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्तिंदिए गुत्तबंभयारी चाई लज्जू धण्णे तवस्सी । खंतिखमे जिइंदिये सोहिए अणियाणे अबहिल्लेस्से अममे अकिंचणे छिण्णगंथे णिरुवलेवे।
१६२. इस प्रकार से (पूर्वोक्त) आचार का परिपालन करने के कारण वह साधु संयमवान, धनादि 9 के लोभ से मुक्त, जमीन जायदाद, सम्पत्ति का पूर्णतया त्यागी, निःसंग-आसक्ति से रहित,
निष्परिग्रहरुचि-परिग्रह में रुचि नहीं रखने वाला, ममता से रहित, स्नेह के बन्धन से मुक्त, समस्त पापों
से निवृत्त, चन्दनकल्प अर्थात् उपकारक और अपकारक के प्रति समान भावना वाला, तृण, मणि, + मुक्ता और मिट्टी के ढेले को समान मानने वाला अर्थात् अल्पमूल्य या बहूमूल्य पदार्थों की समान रूप
से उपेक्षा करने वाला, सम्मान और अपमान दोनों अवस्थाओं में समता का धारक, शमितरज-पापरूपी + रज को उपशान्त करने वाला या शमितरत-विषय सम्बन्धी रति को उपशान्त करने वाला अथवा ।
शमितरय-उत्सुकता को शान्त कर देने वाला, राग-द्वेष को शान्त करने वाला, पाँच समितियों से युक्त, सम्यग्दृष्टि और समस्त त्रस और स्थावर जीवों पर समभाव धारण करने वाला होता है। वही वास्तव में । साधु है।
वह साधु श्रुत का धारक, ऋजु-निष्कपट-सरल अथवा संयम में उद्यत या उद्यमशील है। वह साधु समस्त प्राणियों के लिए शरणभत होता है. समस्त जगदवर्ती जीवों के प्रति वात्सल्य भाव रखने वाला- : हितैषी होता है। वह सत्यभाषी, संसार अन्त के किनारे पर स्थित है, संसार-भवपरम्परा का उच्छेद-अन्त करने वाला, सदा के लिए (बाल) मरण आदि का पारगामी और सब संशयों से परे हो
गया है। पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप अष्ठ प्रवचनमाताओं के द्वारा आठ कर्मों की ग्रन्थि को खोलने ॐ वाला अर्थात् अष्ठ कर्मों का विच्छेद करने वाला, जातिमद, कुलमद आदि आठ मदों का मंथन नाश
करने वाला और स्वसमय-स्वकीय सिद्धान्त में निष्णात होता है। सुख-दुःख उसके लिये समान हैं।। * आभ्यन्तर और बाह्य तपरूप उपधान में सम्यक् प्रकार से पुरुषार्थ करता है, क्षमावान, इन्द्रियविजेता, ऊ स्वकीय और परकीय हित में निरत, ईर्यासमिति से सम्पन्न, भाषासमिति से सम्पन्न, एषणासमिति से
सम्पन्न, आदान-भाण्ड-मात्र-निक्षेपणः समिति से सम्पन्न और मल-मूत्र-श्लेष्म-संघानॐ नासिकामलजल्ल- शरीरमल आदि के प्रतिष्ठापन की समिति से युक्त, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और
कायगुप्ति का पालक, विषयों की ओर उन्मुख इन्द्रियों का गोपन करने वाला, ब्रह्मचर्य की गुप्ति से युक्त, ।
समस्त प्रकार के परिग्रह का त्यागी, पापाचरण में लज्जाशील अथवा रस्सी के समान सरल, तपस्वी, ! । क्षमागुण के कारण सहनशील, जितेन्द्रिय, सद्गुणों से शोभित या शोधित, निदान से रहित, चित्तवृत्ति :
"नानागना
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(408)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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