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________________ 27 5 5 5 5 5 555 5555 57 665 5 5555 5 55 55 55 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52 **************தததததது फ्र 出 5 गयवई रहवई णरवई विपुलकुलवीसुयजसा सारयससिसकलसोमवयणा सूरा तिलोक्कणिग्गयपभावलद्धसद्दा 5 समत्तभरहाहिवा गरिंदा ससेल-वण-काणणं च हिमवंतसागरंतं धीरा भुत्तूण भरहवासं जियसत्तू पवररायसीहा पुव्वकडतवप्पभावा णिविट्ठसंचियसुहा, अणेगवाससयमायुवंतो भज्जाहि य जणवयप्पहाणाहिं लालियंता अतुल - सद्द-फरिस - रस- रूव - गंधे य अणुभवेत्ता ते वि उवणमंति मरणधम्मं अवितत्ता कामाणं । (ग) बत्तीस हजार श्रेष्ठ मुकुटबद्ध राजा उनकी (चक्रवर्ती की ) आज्ञा में चलते हैं। वे चौंसठ हजार श्रेष्ठ युवतियों (रानियों) के नेत्रों के प्रिय होते हैं। उनके शरीर की कान्ति रक्तवर्ण होती है । वे कमल के मध्य भाग, चम्पा के फूलों, कोरंट की माला और तप्त सुवर्ण की कसौटी पर खींची हुई रेखा के समान गौर वर्ण वाले होते हैं। उनके सभी अंगोपांग अत्यन्त सुन्दर और सुडौल होते हैं। बड़े-बड़े पत्तनों में बने हुए विविध रंगों के हिरनी तथा खास जाति की हिरनी के चर्म के समान कोमल एवं बहुमूल्य वस्त्रों से या हिरनी के चर्म से बने वस्त्रों से तथा चीनी वस्त्रों, रेशमी वस्त्रों से तथा कटिसूत्र - करधनी से उनका शरीर सुशोभित होता है। फ्र उनके मस्तिष्क उत्तम सुगन्धित द्रव्यों के चूर्ण (पाउडर) की गंध से और उत्तम कुसुमों से युक्त होते हैं। कलाचार्यों - (शिल्पियों) द्वारा निपुणतापूर्वक बनाई हुई आराम देने वाली माला, कड़े, अंगद - बाजूबंद, तुटिक - अनन्त तथा अन्य उत्तम आभूषण शरीर पर धारण किये रहते हैं। एकावली हार जिनके कण्ठ में सुशोभित हो रहा है। वे लम्बी लटकती धोती एवं दुपट्टा पहनते हैं। उनकी उँगलियाँ अंगूठियों से पीली रहती हैं। अपने उज्ज्वल एवं सुखप्रद वेष - पोशाक से अत्यन्त शोभायमान होते हैं । अपनी तेजस्विता से वे सूर्य के समान दमकते हैं। उनका आघोष (आवाज) शरद् ऋतु के नये मेघ की ध्वनि के समान मधुर, गम्भीर एवं स्नेहयुक्त होता है। उनके यहाँ चक्ररत्न आदि चौदह रत्न उत्पन्न हो जाते हैं और वे नौ निधियों के स्वामी होते हैं। उनका कोश- कोशागार- अखूट (समृद्ध) होता है। उनके राज्य की सीमा तीन दिशाओं में समुद्र पर्यन्त और एक दिशा में हिमवान् पर्वत पर्यन्त फैली होती है। गजसेना, अश्वसेना, रथसेना एवं पदातिसेना - यह चतुरंगिणी सेना उनके मार्ग का अनुगमन करती है, उनकी आज्ञा का पालन करती है। वे अश्वों के अधिपति, हाथियों के अधिपति, रथों के अधिपति एवं नरों - मनुष्यों के अधिपति होते हैं। उनका कुल विशाल व विश्रुत दूर-दूर तक फैले यश वाला होता है। जिनकी प्रसिद्धि सारे लोक में फैली है। उनका मुख शरद् ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान कान्तिमान होता 5 है। वे शूरवीर होते हैं। उनका प्रभाव तीनों लोकों में फैला होता है एवं सर्वत्र उनकी जय-जयकार होती है । वे सम्पूर्ण - छह खण्ड वाले भरत क्षेत्र के अधिपति, धीर, समस्त शत्रुओं के विजेता, बड़े-बड़े राजाओं में सिंह के समान होते हैं । पूर्वकाल में किये तप के प्रभाव से सम्पन्न तथा संचित सुख को भोगने वाले, सैकड़ों वर्षों आयुष्य वाले एवं नरों में इन्द्र-नरेन्द्र (चक्रवर्ती) होते हैं। पर्वतों, वनों और उद्यानों सहित उत्तर दिशा में हिमवान् नामक वर्षधर पर्वत और शेष तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त समग्र भरत क्षेत्र - भारतवर्ष के स्वामित्व - राज्यशासन का उपभोग करते हैं तथा (विभिन्न) जनपदों में श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ( 190 ) Jain Education International 25959595955559595959 55 59595 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59595 97 9 5 5959595 2 For Private & Personal Use Only 卐 Shri Prashna Vyakaran Sutra 卐 2 5 5 5 5 555 5555555555 5 5 5 5 5 55555559555552 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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