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ॐ वाली साधना-आराधना का भी विघातक है। यह चारित्र को पनपने नहीं देता। संयम में विघ्न उपस्थित करता है। + प्रथम तो सम्यक्चारित्र को उत्पन्न ही नहीं होने देता और उत्पन्न हुआ चारित्र भी इसके कारण नष्ट हो जाता है।
इसकी उत्पत्ति के कारणों की समीक्षा करते हुए शास्त्रकार ने बताया है कि इसका जन्म दर्प से होता है। इसका आशय यह है कि जब रसादि के सेवन से इन्द्रियाँ बलवान बन जाती हैं और शरीर पुष्ट होता है तो कामवासना को उत्पन्न होने का अवसर मिलता है। यही कारण है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य की आराधना करने वाले है साधक विविध प्रकार की तपश्चर्या करके अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित रखते हैं। इसके लिए जिह्वेन्द्रिय पर संयम रखना और पौष्टिक आहार का वर्जन करना अनिवार्य है।
तीस नामों में एक नाम 'संसर्गी' भी आया है। इससे ध्वनित है कि अब्रह्मचर्य के पाप से बचने के लिए साधक को विरोधी वेद वाले के संसर्ग से दूर रहना चाहिए। नर के साथ नारी का और नारी के साथ नर का अमर्यादित संसर्ग कामवासना को उत्पन्न करता है। ___अब्रह्मचर्य को मोह, विग्रह, विघात, विभ्रम, व्यापत्ति, बाधनापद आदि जो नाम दिये गये हैं उनसे ज्ञात
होता है कि यह विकार मन में विपरीत भावनाएँ उत्पन्न करता है। काम के वशीभूत हुआ प्राणी मूढ़ बन जाता 卐 है। वह हित-अहित को, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य को या श्रेयस्-अश्रेयस् को यथार्थ रूप में समझ नहीं पाता। हित को
अहित और अहित को हित मान बैठता है। उसका विवेक नष्ट हो जाता है। उसके विचार विपरीत दिशा पकड़ लेते हैं। उसके शील-सदाचार-संयम का विनाश हो जाता है।
विग्रहिक' और 'वैर' नामों से स्पष्ट है कि अब्रह्मचर्य लड़ाई-झगड़ा, युद्ध, कलह आदि का कारण है। प्राचीनकाल में कामवासना के कारण अनेकानेक यद्ध हए हैं, जिनमें हजारों-लाखों मनुष्यों का रक्त बहा है। शास्त्रकार स्वयं आगे ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। आधुनिक काल में भी अब्रह्मसेवन की बदौलत अनेक प्रकार के लड़ाई-झगड़े होते ही रहते हैं। हत्याएँ भी होती रहती हैं।
इस प्रकार उल्लिखित तीस नाम जहाँ अब्रह्मचर्य के विविध रूपों को प्रकट करते हैं, वहीं उससे होने वाले भीषण अनर्थों को भी सूचित करते हैं।
Elaboration—The foundation of having sex is a special type of perverse thought arising in the mind. So it is also called 'manoj' (arising in the si mind). Immediately when it arises in the mind, it deeply disturbs it so it is called 'Manmath'. Such a polluted thought arising in the mind is a hindrance in achieving pure nature of soul. It also destroys or adversely affects the practices for self-purification. It does not allow good conduct to flourish. It causes disturbance in self-restraint. Primarily it does not fi allow right conduct to appear. In case right conduct has appeared, it destroys due to non-celibacy.
While examining the causes that lead to non-celibacy, the author 45 has said that it arises from darp (development of sense-organs). When one takes rich diet, the sense-organs becomes more powerful. The physical body also develops. Then there is a suitable occasion to express lust. So the practitioner of total celibacy, controls his senses by various 45
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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Shri Prashna Vyakaran Sutra
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