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विवेचन : संसार का अर्थ है - संसरण - गमनागमन करना । देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरकगति में जन्ममरण करना ही संसार कहलाता है। इन चार गतियों में परिभ्रमण करने के कारण इसे चातुर्गतिक भी कहते हैं।
प्रस्तुत पाठ में संसार को सागर की उपमा देकर सागर के साथ इसकी विस्तृत तुलना की गई है, जैसे चार 5 गतियाँ इसकी चारों ओर की बाह्य परिधि - घेरा हैं। समुद्र में विशाल जलराशि होती है तो इसमें जन्म-जरा- 5 मरण एवं भयंकर दुःखरूपी अथाह जल है। सागर का जल जैसे चंचल तरंगायमान रहता है, उसी प्रकार संसार में यह जल भी सदा तरंगित रहता है। जैसे सागर में आकाश को स्पर्श करती लहरें उठती रहती हैं, उसी प्रकार 5 संसार में इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग से उत्पन्न होने वाली बड़ी-बड़ी चिन्ताएँ एवं वध-बंधादि यातनाओं की फ्र लहरें उठती रहती हैं। जैसे समुद्र में जगह-जगह पहाड़ - चट्टानें होती हैं, उसी प्रकार यहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि आठ कर्मरूपी विकट पर्वत हैं। इनके टकराने से भीषण लहरें उत्पन्न होती हैं । मृत्यु का भय इस समुद्र की सतह है। क्रोधादि चार कषाय ही संसार-सागर के पाताल-कलश हैं। निरन्तर चालू रहने वाले भव-भवान्तर ही इस समुद्र का निरन्तर आता-जाता असीम जल है। अनन्त - असीम तृष्णा, विविध प्रकार के मंसूबे, कामनाएँ, आशाएँ तथा मलिन मनोभावनाएँ ही यहाँ प्रचण्ड वायु-वेग हैं, जिसके कारण संसार सदा क्षोभमय बना रहता है। काम-राग, लालसा, राग, द्वेष एवं अनेकविध संकल्परूपी सलिल की प्रचुरता के कारण यहाँ अन्धकार छाया रहता है। जैसे समुद्र में भयानक आवर्त्त भँवर उठते हैं तो यहाँ तीव्र मोह के आवर्त्त उठते हैं । समुद्र में भयावह जन्तु निवास करते हैं तो यहाँ संसार में प्रमादरूपी भयानक जन्तु विद्यमान हैं। अज्ञान एवं असंयत इन्द्रियाँ यहाँ विशाल मगरमच्छ हैं, समुद्र में वडवानल होता है तो इस संसार में शोक-सन्ताप का वडवानल है। समुद्र में पड़ा हुआ जीव शरणहीन, अनाथ, निराधार एवं त्राणहीन बन जाता है, इसी प्रकार संसार में जब जीव अपने किये हुए कर्मों के फल भोगता है तो वह दुःखी होता है तो कोई भी उसकी रक्षा करने वाला नहीं होता, कोई उसके लिए आधारभूत नहीं बन सकता ।
ऋद्धिगौरव - ऋद्धि का अभिमान, रसगौरव - सरस भोजनादि के लाभ का अभिमान, सातागौरव - प्राप्त सुखसुविधा का अहंकार रूप अपहार नामक समुद्री विशालकाय जन्तु इस संसार - सागर में रहते हैं जो जीवों को खींच-खींचकर पाताल-तल की ओर घसीटकर ले जाते हैं।
इस संसार को अनादि और अनन्त कहा गया है। यह एक जीव की अपेक्षा से नहीं अपितु समग्र जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। कोई-कोई जीव अपने कर्मों का अन्त करके संसार सागर से पार उतर जाते हैं। तथापि अनन्तानन्त जीवों ने भूतकाल में संसार में परिभ्रमण किया है, वर्तमान में कर रहे हैं और भविष्यकाल में सदा करते ही रहेंगे। अतएव यह अनादि और अनन्त कहा जाता है।
कर्मबन्ध को अनादि कहने का आशय भी कर्म-सन्तति की अपेक्षा से ही है। कोई भी एक कर्म ऐसा नहीं है। जो जीव के साथ अनादिकाल से बँधा रहता है। प्रत्येक कर्म की स्थिति मर्यादित है और अपनी स्थिति पूर्ण होने पर वह जीव से पृथक् हो ही जाता है। किन्तु संसारी जीव प्रतिसमय नवीन नवीन कर्मों का बन्ध करता रहता है, इस प्रकार कर्मों का प्रवाह अनादिकालिक कहा गया है।
मूल पाठ में चौरासी लाख जीवयोनियों का उल्लेख किया गया है। जीवों की उत्पत्ति का स्थान योनि कहलाता है। ये चौरासी लाख जीवयोनियाँ इस प्रकार हैं
पृथ्वीकाय की ७ लाख, अप्काय की ७ लाख, तैजस्काय की ७ लाख, वायुकाय की ७ लाख, प्रत्येक
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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Shri Prashna Vyakaran Sutra
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