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________________ 966555555555555555555555555555555 ७५. वहाँ वध्यभूमि में किन्हीं-किन्हीं चोरों के अंग-प्रत्यंग काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाते हैं। उन्हें वृक्षों की शाखाओं पर टाँग दिया जाता है। उनके चार अंगों-दोनों हाथों और दोनों पैरों को कसकर बाँध दिया जाता है। किन्हीं को पर्वत की चोटी से नीचे लुढ़का दिया जाता है-फेंक दिया जाता है। बहुत ऊँचाई से गिराये जाने के कारण उन्हें नुकीले ऊबड़-खाबड़ पत्थरों की चोट सहनी पड़ती है। किसी-किसी को हाथी के पैर के नीचे कुचलकर कचूमर बना दिया जाता है। उन चोरी का पापकर्म करने वालों को भोंथरे कुल्हाड़ों आदि से अठारह स्थानो में खण्डित किया जाता है। कइयों के कान, आँख और नाक काट दिये जाते हैं तथा आँखें निकाल ली जाती हैं। दाँत उखाड़ दिये जाते हैं और अण्डकोश काट लिए जाते हैं। जीभ खींचकर बाहर निकाल ली जाती है, कान और शिराएँ काट दी जाती हैं। फिर उन्हें वधभूमि में ले जाया जाता है और वहाँ तलवार से काट दिया जाता है। किन्हीं-किन्हीं चोरों को हाथ-पैर काटकर देश से निर्वासित कर दिया जाता है-कई चोरों को आजीवन कारागार में रखा जाता है। कारागार में साँकल बाँधकर एवं दोनों पैरों में बेड़ियाँ डालकर रखा जाता है। पराये धन का अपहरण करने में लुब्ध कई चोरों को कारागार में बन्दी बनाकर उनका धन-माल छीन लिया जाता है। उन चोरों को उनके परिवारजन छोड़ देते हैं-राजकोप या राजदण्ड के भय से कोई स्वजन उनसे सम्बन्ध नहीं रखता, मित्रजन उनकी रक्षा नहीं करते। सभी के द्वारा वे तिरस्कृत होकर सभी की ओर से निराश हो जाते हैं। बहुत-से लोग ‘धिक्कार है तुम्हें' इस प्रकार लज्जित करते हैं। उन लज्जाहीन मनुष्यों को निरन्तर भूखा मरना पड़ता है। चोरी के वे अपराधी सर्दी, गर्मी और प्यास की पीड़ा से कराहते-चिल्लाते रहते हैं। उनका मुख-चेहरा सहमा हुआ और कान्तिहीन हो जाता है। वे सदा विह्वल या असफल' मलिन और दुर्बल बने रहते हैं। थके-हारे या मुझाए हुए से रहते हैं, कोई-कोई खाँसी आदि से पीड़ित रहते हैं और अनेक रोगों से ग्रस्त रहते हैं अथवा खाया हुआ भोजन भलीभाँति न पचने के कारण उनका शरीर क्षीण व पीड़ित रहता है। उनके नख, केश और दाढ़ी-मूंछों के बाल तथा रोम बढ़ जाते हैं। वे कारागार में अपने ही मल-मूत्र में लिप्त रहते हैं (क्योंकि मल-मूत्र त्यागने के लिए उन्हें अन्यत्र नहीं जाने दिया जाता)। जब इस प्रकार की दुस्सह यातनाएँ भोगते-भोगते भी मरने की इच्छा न होने पर भी आयुष्य समाप्त होते ही मर जाते हैं (तब भी उनकी दुर्दशा का अन्त नहीं होता)। उनके शव के पैरों में रस्सी बाँधकर कारागार से बाहर घसीटकर किसी गहरी खाई या गड्ढे में फेंक दिया जाता है। तत्पश्चात् भेड़िया, कुत्ते, सियार, शूकर तथा संडासी जैसे अनेक पक्षी अपने तीक्ष्ण दाँतों से उनके शव को नोंच-नोंचकर खा जाते हैं। कई शवों को बाज, गीध आदि खा जाते हैं। कई चोरों के मृत कलेवर में कीड़े पड़ जाते हैं, उनके शरीर सड़-गल जाते हैं। (इस प्रकार मृत्यु के पश्चात् भी उनके शरीर की ऐसी दुर्गति होती है। फिर भी उनके कष्टों का अन्त नहीं आता) उसके बाद भी अनिष्ट वचनों से लोग निन्दा करते हैं। उन्हें धिक्कारते हैं कि अच्छा हुआ जो पापी मर गया अथवा मारा गया। उसकी मृत्यु से सन्तुष्ट हुए लोग उसकी निन्दा करते हैं। इस प्रकार वे पापी चोर अपनी मौत के पश्चात् भी दीर्घकाल तक अपने स्वजनों-परिजनों को लज्जित करते रहते हैं। श्रु.१, तृतीय अध्ययन : अदत्तादान आश्रव ( 161 ) Sh.1, Third Chapter: Stealing Aasrava 94555555555555555555555555555555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002907
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages576
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_prashnavyakaran
File Size19 MB
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