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चित्र-परिचय
Illustration No. 6
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मृषावाद का स्वरूप (3) मृषावाद के अन्य स्वरूप निम्नोक्त हैं
एकात्मवाद-एकात्मावादियों का कथन है कि जिस प्रकार चन्द्रमा एक होने पर भी अलग-अलग पात्रों व जलाशयों में उसका प्रतिबिम्ब अलग-अलग रूप में प्रतिभासित होता है, उसी प्रकार इस संसार में एक ही आत्मा है। वह संसार के सभी जीवों में अलग-अलग प्रतिभासित होती है। चाहे वह हाथी जैसा विशाल जीव हो या चींटी जैसा नन्हा जीव हो। चाहे मनुष्य हो या देव, नारक हो या तिर्यंच, कीड़े-मकोड़े, वनस्पति आदि सभी में एक ही आत्मा है। बस शरीर अलग-अलग हैं।
अकर्तृत्ववाद-अकर्तृत्ववाद का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है-सांख्यदर्शन में दो तत्त्व माने गये हैं--(1) आत्मा अर्थात् पुरुष, (2) प्रकृति अर्थात् प्रधान। सृष्टि के प्रारम्भ में प्रकृति से बुद्धितत्व की उत्पत्ति हुई। बुद्धि से अहंकार और अहंकार से मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच तन्मात्र की उत्पत्ती हुई। पाँच तन्मात्र से पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों का उद्भव हुआ।
सांख्यदर्शन में आत्मा को अकर्ता, अमूर्त, चेतन्य और भोक्ता माना गया है तथा सुख-दुःख, पाप-पुण्य इन सबका कर्ता प्रकृति को बताया है। इन्द्रियों को दानादि रूप पुण्य, हिंसा रूप पाप एवं सुख और दुःख का कारण माना गया है।
-सूत्र 49, पृ. 92
FALACIOUS DOCTRINES EXPLAINED (3) Other fallacious doctrines described are as follows -
Ekatmavad - The followers of this doctrine believe that there is only one soul in this universe. Like the reflection of the moon in different water bodies like rivers, seas, ponds and pots, the same soul is reflected separately in all beings. It could be a large animal like an elephant or a tiny one like an art. Whether it is human beings, divine beings, infernal beings, animals, insects or plants, only bodies are different, the soul is just one.
Akartritvavad - According to this doctrine, the Sankhya philosophy, there are two fundamental elements - (1) Purush (soul) and (2) Pradhan (nature). At the time of the origin of the universe first of all nature created intellect, which in turn created ego. From ego came five senses of action, five senses of knowledge and five tanmatras (subtle powers). The five tanmatras created five bhutas, namely earth, water, fire, air and space.
Sankhya school believes that soul is non-doer, formless, sentient and sufferer. Nature is said to be the creator of pleasure, pain, sin and piety. The sense organs are said to be the cause of merits including charity, sin including violence as well as happiness and misery.
- Sutra-49, page-92
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