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9 (ख) तदन्यवस्तुक-इसका अभिप्राय है-वादी का पक्ष खण्डित करने के लिए युक्ति रखना। जैसे कि
वादी ने कहा जो पत्र जल में गिरते हैं वे जलचर जीव बन जाते हैं और जो स्थल पर गिरते हैं वे 卐 स्थलचर जीव बनते हैं। इस पक्ष का खण्डन करने के लिए युक्ति दी गई कि “जो पत्र गिराकर खाये
जाते हैं या कहीं ले जाये जाते हैं, उनका क्या होता होगा?" कारण कार्य में यथोचित सम्बन्ध न होने से म यह कथन युक्तियुक्त नहीं है। इस प्रकार के तर्क तदन्यवस्तुक कहलाते हैं। ॐ (ग) प्रतिनिभ-"जैसे को तैसा' उत्तर देकर वादी को निरुत्तर कर देना। जैसे किसी ने कहा-“जो
मुझे नई बात सुनाएगा, उसे मैं एक लाख रुपये मूल्य का कटोरा दूंगा।" इस घोषणा को सुनकर अनेक विद्वानों ने अपूर्व-अपूर्व श्लोकों की रचना करके नई-नई बातें सुनाईं, परन्तु सबकी बातें सुनकर वह कह देता-“यह बात या यह पद्य मेरा सुना हुआ है।'' तब एक सिद्ध-पुत्र ने कहा
"तुज्झ पिया मझ पिउणो, धारेइ अणूणयं सयसहस्सं।
___ जइ सुयपुव्वं दिजउ, अह न सुयं खोरयं देहि॥" __ "तुम्हारे पिताजी पर मेरे पिताजी का एक लाख रुपया देना था, यदि यह बात तुमने पहले से ही
सुन रखी है तो मेरे पिताजी का एक लाख रुपया चुका दो, अगर तुमने यह बात पहले नहीं सुन रखी है है और इसे नई बात समझते हो, तो मुझे कटोरा दे दो।" इस प्रकार की उत्तर-विधि का नाम प्रतिनिभ है। ॐ यह प्रतिछलात्मक आहरण है।
(घ) हेतु-उपन्यासोपनय हेतु उसे कहते हैं, जहाँ प्रश्न का हेतु ही उत्तर रूप में कहा जाये। किसी ने म किसी साधु से कहा-“हे साधो ! तुम ब्रह्मचर्य आदि कष्ट क्यों सहते हो?" तब साधु ने उत्तर दिया
“जो तपस्या आदि शुभ क्रियाएँ नहीं करते, उन्हें नरक आदि के दुःख सहने पड़ते हैं।' जैसे किसी ने + पूछा-“साधो ! तुम दीक्षित क्यों हुए हो?' तब उसने उत्तर दिया-"बिना दीक्षा ग्रहण किए प्रायः कर्म
क्षय नहीं हो सकते।' इन प्रश्नों में जो प्रश्न रूप में कहा गया है, वही उत्तर रूप में यहाँ प्रकट किया + गया है।
इस प्रकार ज्ञात के मूल भेद चार हैं और उत्तर भेद सोलह हैं। पहला ज्ञात समग्रसाधर्म्यस्वप है, दूसरा देशसाधर्म्य है, तीसरा ज्ञात सदोष है और चौथा ज्ञात प्रतिवादी का उत्तररूप विषय है। ___Elaboration-Aforesaid aphorisms 499 to 504 cover some topics from Nyaya shastra (Logics) like drishtant and hetu. This subject is difficult to understand without elaboration and examples. The commentator (Tika) has explained all these in great detail giving elaborate explanations and numerous examples. We give a brief gist of that here
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स्थानांगसूत्र (१)
(588)
Sthaananga Sutra (1)
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