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जी है। जैसे-चन्दनबाला ने मृगावती साध्वी को उपालंभ देकर उसका कल्याण किया तथा राजीमती साध्वी
ने विचलित-मन रथनेमि को उपालंभ देकर संयममार्ग में स्थिर किया। इस प्रकार के चरित व दृष्टान्तों को उपालंभ कहा जाता है। उपालंभ द्वेष-बुद्धि से नहीं, हित-बुद्धि से दिया जाता है।
(ग) पृच्छा-किसी अज्ञात विषय को समझने के लिए, अपनी शंकाओं को दूर करने के लिए या ॐ जनता को समझाने के लिए अपने विषय में या दूसरों के विषय में किसी अतिशय-ज्ञानसंपन्न मुनिवर से
प्रश्न पूछना पृच्छा। जैसे कि कूणिक राजा ने एक बार भगवान महावीर से पूछा-"भगवन् ! ऐसा + चक्रवर्ती जिसने काम-भोगों का परित्याग नहीं किया, वह मरकर कहाँ उत्पन्न होता है?' तब भगवान
ने उत्तर दिया-“काम-भोगों में आसक्त होने से वह उत्कृष्ट सातवें नरक में उत्पन्न हो सकता है।" तब म कूणिक ने पूछा-“भगवन् ! मैं मरकर कहाँ उत्पन्न होऊँगा?" भगवान ने कहा-“छट्ठी नरक में।"
कूणिक ने पूछा-“क्या मैं चक्रवर्ती नहीं हूँ ?" भगवान ने कहा-“नहीं ! क्योंकि तेरे पास चौदह भरलनिधि नहीं है।" तब कूणिक ने कृत्रिम रत्न तैयार करवा के चक्रवर्ती बनने का भरसक प्रयत्न किया,
भरतक्षेत्र जीतने चला और वैताढ्य पर्वत के गुफा द्वार पर कृतमाल यक्ष द्वारा मारे जाने पर वह छट्ठी नरक में गया। यह पृच्छा 'ज्ञात' का उदाहरण है।
(घ) निश्रावचन-किसी एक सुयोग्य व्यक्ति का आलंबन लेकर अन्य व्यक्तियों को सुशिक्षित करना निश्रावचन कहलाता है। जैसे-भगवान ने द्रुमपत्र नामक उत्तराध्ययन के दसवें अध्ययन में गौतम को + सम्बोधित कर अन्य शिष्यों को अप्रमत्त रहने का उपदेश दिया कि “समयं गोयम ! मा पमायए।" इस प्रकार से दी जाने वाली शिक्षा को निश्रावचन कहते हैं।
३. आहरणतद्दोष-जो चरित दृष्टान्त या युक्ति सदोष हो, जिससे साध्य खंडित होता हो, जैसे-"शब्द म नित्य है, अमूर्त होने से, घट के समान'' इस वाक्य में शब्द पक्ष है, नित्यत्व साध्य है, अमूर्त होना यह 3 हेतु है, घट के समान यह दृष्टान्त है। 'घट के समान' दृष्टान्त में नित्यत्व का साध्य होना और अमूर्त्तत्य
का साधन होना; ये दोनों ही नहीं पाये जाते, क्योंकि घट मानव कृत होने से अनित्य है तथा पौद्गलिक ॐ होने से मूर्त है। इस प्रकार यह दृष्टान्त साध्य और साधन दोनों की दृष्टि से विकल है। आहरणतद्दोष के
निम्न चार भेद हैं+ (क) अधर्मयुक्त-जिस चरित या दृष्टान्त के सुनने से श्रोताओं में अधर्म-बुद्धि उत्पन्न हो, जिसके ॐ सुनने से अधर्म कार्यों में प्रवृत्ति हो। इस प्रकार की कथा-कहानियों का समावेश अधर्मयुक्त + आहरणतद्दोष में होता है। जैसे किसी के पुत्र को चेंटों ने काट खाया। उसके पिता ने चेंटों के बिल में ॐ गर्म जल डलवाकर सब चेंटों का विनाश कर डाला। चाणक्य ने यह दृष्टान्त सुनकर अपने शत्रुओं को
विष देकर मरवा डाला।
स्थानांगसूत्र (१)
(586)
Sthaananga Sutra (1)
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