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(२) अहणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिव्येसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववण्णे, तस्स ॐ णं माणुस्सए पेमे वोच्छिण्णे, दिव्वे संकंते भवति। 4 (३) अहणोवषण्णे देवे देवलोगेसु दिव्येसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववण्णे, तस्स + णं एवं भवति-इण्हिं गच्छं मुहुत्तेणं गच्छं, तेणं कालेणमप्पाउया मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता 9 भवंति।
(४) अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिव्येसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववण्णे, तस्स 9 णं माणुस्सए गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवति, उटुंपि य णं माणुस्सए गंधे जाव चत्तारि पंच + जोयणसताइं हव्वमागच्छति।
___इच्चेतेहिं चउहि ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए, णो ॐ चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए।
४३३. देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की इच्छा करता है, किन्तु । । शीघ्र आने में समर्थ नहीं होता। इसके चार कारण हैं
(१) देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव दिव्य काम-भोगों में मूर्छित (आकण्ठ डूबा हुआ), गृद्ध (भोग की आकांक्षा करने वाला), ग्रथित (विषयों में आसक्त) हुआ और अध्युपपन्न (उनमें अत्यन्त अनुरक्त व्यामूढ़) होकर मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों का आदर नहीं करता है, उन्हें अच्छा नहीं जानता
है, उनसे लगाव तथा सम्बन्ध नहीं रखता है, उन्हें पाने का निदान (संकल्प) नहीं करता है और न 卐 स्थितिप्रकल्प (उनके बीच में रहने की इच्छा) करता है। ऊ (२) देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुए देव का मनुष्य-सम्बन्धी प्रेम सम्बन्ध टूट जाता है और उसके भीतर दिव्य प्रेम-देवलोक सम्बन्धी प्रेम संचारित हो जाता है।
(३) देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव ऐसा विचार करने लगता है-“अभी जाता हूँ, थोड़ी देर में जाता हूँ। मुहूर्त भर में जाता हूँ।" किन्तु देवों का मुहूर्त भर भी इतना लम्बा होता है कि इतने काल में अल्प आयुष्य के धारक मनुष्य काल धर्म को प्राप्त हो जाते हैं।
(४) देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुआ देव, यहाँ आना चाहता है, किन्तु उसे मनुष्यलोक की गन्ध प्रतिकूल-(दुर्गन्ध रूप) तथा प्रतिलोम (इन्द्रिय और मन को अप्रिय) लगने लगती है, क्योंकि मनुष्यलोक
की दुर्गन्ध चार-पाँच सौ योजन ऊपर तक फैलती रहती है। वह उसे सहन नहीं कर पाता, अतः चाह # कर भी नीचे नहीं आता।
इन चार कारणों से तत्काल उत्पन्न हुआ देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की इच्छा करता हुआ भी ॐ आने में समर्थ नहीं होता।
स्थानांगसूत्र (१)
(536)
Sthaananga Sutra (1) 5555555555555555555555555555555555558
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