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________________ 85555555555555555555555555555555 a55555555555 5 55555555555555 $ $$$ $$$$$$$$ 5555 h hhhhhha २४६. तिहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, संचाएइ हव्वमागछित्तए (१) अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिव्येसु कामभोगेसु अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम माणुस्सए भवे आयरिएति वा उवज्झाएति वाज ॐ पवत्तीति वा थेरेति वा गणीति वा गणधरेति वा गणावच्छेदेति वा, जेसिं पभावेणं मए इमा एयारूवा दिव्या देविट्टी, दिबा देवजुती, दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागते, तं गच्छामि णं ते भगवंते . वंदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि। (२) अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु अणज्झोववण्णे, तस्स णं एवं भवति-एस णं माणुस्सए भवे णाणीति वा तवस्तीति वा अतिदुक्करदुक्करकारगे, तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि णमंसामि जाव पज्जुवासामि। (३) अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु [दिव्येसु कामभोगेसु अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए ] अणज्झोववण्णे, तस्स णमेवं भवति-अत्थि णं मम माणुस्सए भवं माताति वा [ पियाति वा भायाति ॥ + वा भगिणीति वा भज्जाति वा पुत्ताति वा धूयाति वा ] सुण्हाति वा, तं गच्छामि णं तेसिमंतियं पाउन्भवामि, पासंत ता मे इमं एतारूवं दिव्वं देविईि दिव्वं देवजतिं दिव्वं देवाणभावं लद्धं पत्तं , ॐ अभिसमण्णागयं। ... इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्यमागच्छित्तए संचाएति हव्वमागच्छित्तए। ___२४६. तीन कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में आना चाहता है और ॐ आ भी सकता है (१) देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य काम-भोगों में अमूर्च्छित, अगृद्ध, अबद्ध एवं अनासक्त देव सोचता है-मनुष्यलोक में मेरे मनुष्य भव के आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर और गणावच्छेदक हैं, जिनके प्रभाव से मुझे यह इस प्रकार की दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-जूति और दिव्य देवानुभाव (वैक्रियादि शक्ति) मिला है, प्राप्त हुआ है, अभिसमन्वागत (भोग के लिए प्राप्त) हुआ है। अतः ॐ मैं जाऊँ और उन भगवन्तों को वन्दना नमस्कार करूँ, उनका सत्कार, सम्मान करूँ तथा उनक म कल्याणकर, मंगलमय, देव और चैत्यस्वरूप भगवन्तों की पर्युपासना करूँ। + (२) देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य काम-भोगों में अमूर्च्छित (अगृद्ध, अबद्ध) एवं अनासक्त देव म सोचता है कि मनुष्य भव में अनेक ज्ञानी, तपस्वी और अति दुष्कर तपस्या करने वाले हैं। अतः मैं जाऊँ और उन भगवन्तों को वन्दन करूँ, नमस्कार करूँ, उन भगवन्तों की पर्युपासना करूँ। (३) देवलोक में तत्काल उत्पन्न एवं अनासक्त देव सोचता है-मेरे मनुष्य भव के माता (पिता, भाई, बहिन, स्त्री, पुत्र, पुत्री) और पुत्र-वधू हैं, अतः मैं उनके पास जाऊँ और उनके सामने प्रकट होऊँ, है जिससे वे मेरी इस प्रकार की दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देव-द्युति और दिव्य देवानुभाव को-जो मुझे मिली 5 है, प्राप्त हुई है, अभिसमन्वागत हुई है, उसे देखें। तृतीय स्थान (253) Third Sthaan Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002905
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages696
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size21 MB
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