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१७२. मणुस्साणं सता समितं जे पावे कम्मे कज्जति, इहगतावि एगतिया वेदणं वेदेति, अण्णत्थगतावि एगतिया वेदणं वेदेति। मणुस्सवज्जा सेसा एक्कगमा।
१७२. मनुष्यों के सदा-सर्वदा जो पाप कर्म का बन्ध होता है, कितने ही मनुष्य इसी भव में उनका फल भोग लेते हैं और कितने ही यहाँ भी भोगते हैं और अन्य गति में जाकर भी भोगते हैं। मनुष्यों को छोड़कर शेष दण्डकों का कथन एक समान है अर्थात् संचित कर्म का इस भव में वेदन करते हैं और जन्य भव में जाकर भी वेदन करते हैं किन्तु मनुष्य के लिए मणुस्सवज्जा ऐसा शब्द-प्रयोग इसलिए किया है कि वह इसी भव में सम्पूर्ण कर्म क्षय करके मुक्त भी हो सकता है।
172. Human beings continuously attract bondage of demeritorious karmas. Many of these beings suffer the fruits of their karmic bondage during that very birth and many during other following births. Except for human beings this statement is same for all other dandaks, that is they suffer the fruits of their karmic bondage during that very birth as well as during other following births. Human beings are exceptions because they can also shed all the acquired karmas during that very birth and get liberated. गति-आगति-पद GATI-AAGATI-PAD (SEGMENT OF BIRTH FROM AND TO)
१७३. णेरइया दुगतिया दुयागतिया पण्णत्ता, तं जहा-णेरइए णेरइएसु उववज्जमाणे मणुस्सेहिंतो वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वा उववज्जेज्जा। से चेव णं से णेरइए णेरइयत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज्जा।
१७३. नैरयिक जीव दो गति में गमन और दो गति से आगमन वाला होता है। यथा-नरक में उत्पन्न होने वाले जीव मनुष्यों से अथवा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार नारक जीव नारक अवस्था को छोड़कर मनुष्य अथवा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में (आकर) उत्पन्न होता है। (अन्य किसी गति में नहीं जाता)
A nairayik (infernal being) while reincarnating goes to (gati) two genuses and comes from (aagati) two genuses. It is like this-Coming from humans or five sensed animals they are born as infernal beings. Ending the infernal state they are born as humans or five sensed animals. (They do not go to any other genus.)
१७४. एवं असुरकुमारा वि, णवरं-से चेव णं से असुरकुमारे असुरकुमारत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोणियत्ताए, वा गच्छेज्जा। एवं सव्व देवा।
१७४. असुरकुमार भवनपति देव भी दो गति (मनुष्य एवं तिर्यंच) और दो आगति वाले होते हैं। असुरकुमार देव असुरकुमार-पर्याय को छोड़ता हुआ मनुष्य-पर्याय में या तिर्यग्योनि में जाता है। इसी प्रकार सर्व देवों की गति और आगति जानना चाहिए।
स्थानांगसूत्र (१)
(86)
Sthaananga Sutra (1)
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