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5555555555555 ॐ मारणंतियसंलेहणा-जूसणा-जूसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खित्ताणं पाओवगत्ताणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए, तं जहा-पाईणं चेव, उदीणं चेव।
॥प्रथम उद्देशक समत्तं ॥ १६७. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को पूर्व और उत्तर इन दो दिशाओं की तरफ मुख करके दीक्षित करना कल्पता (विहित) है। १६८. (इसी प्रकार) निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को पूर्व और उत्तर दिशा में मुख करके दीक्षा देना, शिक्षा देना (अध्ययन प्रारम्भ करना), महाव्रतों में स्थापित करना, भोजन-मण्डली में सम्मिलित करना, एक स्थान पर निवास करना, स्वाध्याय के लिए उद्देश-(स्वाध्याय की प्रेरणा) करना, स्वाध्याय को समुद्देश-(पढ़े हुए पाठ को स्थिर रखने की प्रेरणा) करना, स्वाध्याय की अनुज्ञा-(पढ़े हुए पाठ को स्मृति में धारण करने का निर्देश) देना, आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना, अतिचारों की गर्दा करना, लगे हुए दोषों का छेदन (प्रायश्चित्त) करना, दोषों की शुद्धि करना, पुनः दोष न करने की प्रतिज्ञा करना, दोष के अनुसार यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करना कल्पता है। १६९. जो निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ अपश्चिम-मारणान्तिक (अन्तिम) संलेखना की 5 आराधना कर रहे हैं, जो भक्त पान का प्रत्याख्यान कर चुके हैं, जो पादोपगम संथारा स्वीकार कर चुके
हैं, मरण काल की आकांक्षा नहीं रखते हुए प्रसन्नतापूर्वक विहर रहे हैं, उन्हें पूर्व और उत्तर इन दो के + दिशाओं की ओर मुख करके रहना चाहिए।
167. It is proper to initiate nirgranth (male ascetics) and nirgranthi (female ascetics) when they are facing two directions-east and north. 168. (In the same way) It is proper for nirgranth and nirgranthi to perform following acts when they face two directions-east and north-to tonsure, to teach (commence lessons), to make them accept great vows, to join them
in group-meal and stay at one place; to inspire them to study, to $ understand lessons; to instruct them to memorize lessons; and help them 41
in self-criticism and critical review; to repent for transgressions in praxis, # to condone mistakes committed, to cleanse faults, to resolve not to repeat
mistakes and to accept austerities suitable for condoning mistakes. 169. It is proper for nirgranths and nirgranthis to face two directionseast and north-while indulging in marunantik samlekhara (ultimate vow or fasting unto death), bhakt-paan pratyakhyan (absolute abstainment from intake of food and water), padopagam santhara
(observing ultimate vow lying like a log of wood) and happily spending Hi their time without anticipating the moment of death.
विवेचन-कोई भी शुभ कार्य करते समय पूर्व दिशा और उत्तर दिशा में मुख करने का विधान प्राचीनकाल से चला आ रहा है। इसके पीछे आध्यात्मिक उद्देश्य तो यह है कि पूर्व दिशा से उदित होने + वाला सूर्य जिस प्रकार संसार को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार से दीक्षा आदि कार्य भी मेरे लिए
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स्थानांगसूत्र (१)
(82)
Sthaananga Sutra (1)
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