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फ्र is karman sharira and outer is audarik sharira (gross physical body with 5 bones, flesh, blood, ligaments and veins).
विग्रह - गति - पद VIGRAHA GATI PAD (SEGMENT OF OBLIQUE MOVEMENT) १६१. विग्गहगइसमावण्णगाणं णेरइयाणं दो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा - तेयए चेव, कम्मए चेव । णिरंतरं जाव वेमाणियाणं ।
फ्र
विवेचन - जीव जब पूर्व शरीर को छोड़कर नवीन उत्पत्तिस्थान की ओर जाता है तब उसकी बीच की गति दो प्रकार की होती है - ऋजुगति और वक्रगति । समश्रेणि (सीधी श्रेणि) में गमन करना ऋजुगति
है (यह एक समय की होती है)। जब उस जीव का उत्पत्तिस्थान विश्रेणि में होता है तब वह विग्रहगति
समापन्नक कहलाता है (वक्र विग्रहगति दो समय तीन समय, चार समय और पाँच समय की भी होती है - देखें चित्र ४) ।
१६१. विग्रहगति में वर्तमान नारक जीवों के दो शरीर होते हैं - तेजस् शरीर और कार्मण शरीर । इसी प्रकार विग्रहगति समापन्नक वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में दो-दो शरीर जानना चाहिए। 161. The body of a vigraha-gati samapannak nairayik (infernal being having oblique movement during reincarnation) is of two kinds-taijas sharira (fiery body) and karman sharira (karmic body). In the same way 5 the bodies of each of the beings of all dandaks (places of suffering) up to Vaimanik devas (gods dwelling in celestial vehicles) are of the said two kinds each.
पाँच शरीरों में कार्मण एवं तेजस् शरीर आभ्यन्तर तथा औदारिक, वैक्रिय एवं आहारक बाह्य शरीर होते | कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों में रहता है।
Elaboration-At the time of reincarnation when a soul moves from the body to the new place of birth it has two kinds of movementriju gati (straight movement; it is of a duration of one Samaya) and
5 vakra or vigraha gati (oblique movement; it is of a duration of two, three, फ four or five Samayas). When this movement is oblique the being undergoing such movement is called vigraha-gati samapannak.
existing
Of the five kinds of bodies karman (karmic) and taijas (fiery) are inner bodies. The audarik (gross physical), vaikriya (transmutable) and aharak (telemigratory) are outer. Every being in this world has a karmic body.
१६२. रइयाणं दोहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया, तं जहा- रागेण चेव, दोसेण चेव जाव वेमाणियाणं । १६३. णेरइयाणं दुट्ठाणाणिव्वंत्तिए सरीरे पण्णत्ते, तं जहा - रागणिव्यत्तिए चेव, दोसणिव्वत्तिए चैव जाव वेमाणियाणं ।
स्थानांगसूत्र (१)
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Sthaananga Sutra (1)
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फ्र
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