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தததததததததததததத*****************மிதி
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[उ. ] गौतम ! पर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिक देव कर्म - आशीविष नहीं,
5 Saudharma Kalp ) ?
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फ
सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिक देव कर्म - आशीविष है। इसी प्रकार यावत् पर्याप्त सहस्रार - कल्पोपपत्र
वैमानिक देव कर्म - आशीविष नहीं, किन्तु अपर्याप्त सहस्रार - कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्मआशीविष है।
卐 [Ans.] Gautam ! There never are Paryapt Saudharma Kalpopapannak Vaimanik dev-karma-ashivish (poisonous by action
among fully developed celestial vehicular divine beings belonging to 卐 Saudharma Kalp) but only Aparyapt Saudharma Kalpopapannak dev-karma-ashivish (poisonous by action among
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Vaimanik
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underdeveloped celestial vehicular divine beings belonging to
17. Bhante ! If there are Saudharma Kalpopapannak Vaimanik devkarma-ashivish (poisonous by action among celestial vehicular divine beings belonging to the Saudharma Kalp) then are they Paryapt Saudharma Kalpopapannak Vaimanik dev-karma-ashivish (poisonous by action among fully developed celestial vehicular divine beings belonging to Saudharma Kalp) or Aparyapt Saudharma Kalpopapannak vaimanik dev-karma-ashivish (poisonous by action among vehicular divine beings belonging to
underdeveloped celestial
परन्तु अपर्याप्त
Saudharma Kalp). In the same way there are... and so on up to... no Paryapt Sahasrar Kalpopapannak Vaimanik dev-karma-ashivish
(poisonous by action among fully developed celestial vehicular divine beings belonging to the Sahasrar Kalp) but only Aparyapt Sahasrar
Kalpopapannak Vaimanik dev-karma-ashivish (poisonous by action
among underdeveloped celestial vehicular divine beings belonging to the Sahasrar Kalp).
विवेचन : आशीविष और उसके प्रकारों का स्वरूप - आशी का अर्थ है - दाढ़ (दंष्ट्रा )। जिन जीवों की दाढ़ में
विष होता है, वे 'आशीविष' कहलाते हैं। आशीविष प्राणी दो प्रकार के होते हैं जाति-आशीविष और
कर्म - आशीविष । साँप, बिच्छू, मेंढक आदि जो प्राणी जन्म से ही आशीविष होते हैं, वे जाति- आशीविष
कहलाते हैं और जो कर्म यानी शाप आदि क्रिया द्वारा प्राणियों का विनाश करने में समर्थ हैं, वे कर्म-आशीविष
5 कहलाते हैं। पर्याप्तक तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय और मनुष्य को तपश्चर्या आदि से अथवा अन्य किसी गुण के कारण
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आशीविष-लब्धि प्राप्त हो जाती है। ये जीव आशीविष-लब्धि के प्रभाव से शाप देकर दूसरे का नाश करने की
शक्ति पा लेते हैं। आशीविषलब्धि वाले जीव आठवें देवलोक से आगे उत्पन्न नहीं हो सकते। जिन्होंने पूर्वभव में
आशीविषलब्धि का अनुभव किया था, अतः पूर्वानुभूतभाव के कारण वे कर्म - आशीविष होते हैं । अतः वे अपर्याप्त अवस्था में ही आशीविषयुक्त होते हैं ।
भगवती सूत्र (३)
( 10 )
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Bhagavati Sutra ( 3 )
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