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विवेचन : अन्य जीव के औदारिकादि शरीर की अपेक्षा होने वाली क्रिया का आशय - कायिकी आदि पाँच फ क्रियाएँ हैं, जिनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। जब एक जीव, दूसरे पृथ्वीकायादि, जीव के शरीर की 5 अपेक्षा काया का व्यापार करता है, तब उसे तीन क्रियाएँ होती हैं- कायिकी, आधिकारणिकी और प्राद्वेषिकी । क्योंकि सराग जीव को कायिक क्रिया के सद्भाव में आधिकरणिकी तथा प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती है, क्योंकि सराग जीव की काया अधिकरण रूप और प्रद्वेषयुक्त होती है। आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी और कायिकी, इन तीनों क्रियाओं का अविनाभाव (परस्पर गहरा ) सम्बन्ध है। पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया में 5 भजना (विकल्प) है; जब जीव, दूसरे जीव को परिताप पहुँचाता है अथवा दूसरे के प्राणों का घात करता है, तभी क्रमशः पारितापनिकी अथवा प्राणातिपातिकी क्रिया होती है। अतः जब जीव, दूसरे जीव को परिताप उत्पन्न करता है, तब जीव को चार क्रियाएँ होती हैं। जब जीव, दूसरे जीव के प्राणों का घात करता है, तब उसे 5 पाँच क्रियाएँ होती हैं। क्योंकि इन दोनों क्रियाओं में पूर्व की तीन क्रियाओं का सद्भाव अवश्य होता है। इसीलिए मूल पाठ में जीव को कदाचित् तीन कदाचित् चार और कदाचित् पाँच क्रिया वाला कहा गया है। जीव फ कदाचित् अक्रिय भी होता है, यह बात अयोगी अवस्था की अपेक्षा से कही गई है। (मनुष्य के सिवाय शेष २३ 5 दण्डकों के जीव अक्रिय नहीं होते ।)
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नरकस्थित नैरयिक जीव को मनुष्यलोकस्थित आहारकशरीर की अपेक्षा तीन या चार क्रिया वाला बताया गया है, उसका रहस्य यह है कि नैरयिक जीव ने अपने पूर्वभव के शरीर का विवेक (विरति) के अभाव में 5 व्युत्सृजन नहीं किया (त्याग नहीं किया), इसलिए उस जीव द्वारा बनाया हुआ वह (भूतपूर्व ) शरीर जब तक शरीर परिणाम का सर्वथा त्याग नहीं कर देता, तब तक अंशरूप में भी शरीर परिणाम को प्राप्त वह शरीर, फ पूर्वभाव - प्रज्ञापना की अपेक्षा 'घृतघट' न्याय से (घी निकालने पर भी उसे भूतपूर्व घट की अपेक्षा 'घी का घड़ा' कहा जाता है, तद्वत्) घी का घड़ा कहलाता है। अतः उस मनुष्यलोकवर्ती (भूतपूर्व) शरीर के अंशरूप अस्थि (हड्डी) आदि से आहारकशरीर का स्पर्श होता है, अथवा उसे परिताप उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से नैरियक जीव आहारकशरीर की अपेक्षा तीन या चार क्रिया वाला होता है। इसी प्रकार देव आदि तथा द्वीन्द्रिय आदि क जीवों के विषय में भी जान लेना चाहिए। (वृत्ति पत्रांक ३७७, प्रज्ञापना क्रियापद)
॥ अष्टम शतक : छटा उद्देशक समाप्त ॥
Elaboration-Meaning of activities related to body of another being-There are five types of activities (kriya) including physical (kaayiki) as already detailed earlier. When a living being indulges in physical activity in relation to the body of other living being including earth-bodied beings, then it gets involved in three activities-kaayiki kriya (physical activity), aadhikaraniki kriya (activity of collecting instruments of violence) and praadveshiki kriya (activity of harbouring aversion). This is because when a living being having attachment indulges in physical activity he is necessarily involved in aadhikaraniki kriya (activity of collecting instruments of violence) and praadveshiki 卐 kriya (activity of harbouring aversion). The reason for this is that the body of a living being with attachment acts as an instrument and it has
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अष्टम शतक छटा उद्देशक
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Eighth Shatak: Sixth Lesson
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