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[उ. ] हे गौतम ! वह एकेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोग-परिणत होता है, इस सम्बन्ध में जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के (इक्कीसवें) अवगाहनासंस्थान-पद में कार्मण के भेद कहे गये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिए; यावत् पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिकदेव-पंचेन्द्रियकार्मणशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त-सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-कार्मणशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है; (यहाँ तक कहना चाहिए)। ___71. [Q.] Bhante ! If a substance is transformed due to conscious activity of karmic body (karman sharira kaaya-prayoga parinat), then is it transformed due to conscious activity of karmic body of one-sensed being (ekendriya karman sharira kaaya-prayoga parinat) or... and so on up to... karmic body of five-sensed being (panchendriya karman sharira kaaya-prayoga parinat)? ___[Ans.] Gautam ! It could be transformed either due to conscious activity of karmic body of one-sensed being (ekendriya karman sharira kaaya-prayoga parinat). In this regard what is stated in Avagahana Samsthan (the 21st chapter) of Prajnapana Sutra with regard to types of karmic body should be followed... and so on up to... It is transformed due to conscious activity of karmic body of fully developed five-sensed Sarvarthasiddha Anuttaraupapatik celestial-vehicular divine beings beyond the Kalps (paryaptak Sarvarthasiddha Anuttaraupapatik Kalpateet Vaimanik dev panchendriya karman sharira kaaya prayoga parinat) or transformed due to conscious activity of karmic body of underdeveloped five-sensed Sarvarthasiddha Anuttaraupapatik celestial-vehicular divine beings beyond the Kalps (aparyaptak Sarvarthasiddha Anuttaraupapatik Kalpateet Vaimanik dev panchendriya karman sharira kaaya prayoga parinat).
विवेचन : (१) औदारिकशरीरकाययोग-औदारिकशरीर, पुद्गलस्कन्धों का समूह होने से 'काय' कहलाता है। इससे होने वाले व्यापार को औदारिकशरीर-काययोग कहते हैं। यह योग मनुष्यों और तिर्यञ्चों में होता है।
(२) औदारिकमिश्रशरीरकाययोग-औदारिक के साथ कार्मण, वैक्रिय या आहारक की सहायता से होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं। यह योग उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक सभी औदारिकशरीरधारी जीवों को होता है। वैक्रियलब्धिधारी मनुष्य और तिर्यञ्च जब वैक्रिय शरीर का त्याग करते हैं, तब भी औदारिकमिश शरीर होता है। इसी तरह लब्धिधारी मुनिराज जब आहारक शरीर बनाते हैं, तब आहारकमिश्रकाययोग होता है, किन्तु जब वे आहारक शरीर से निवृत्त होकर मूल शरीरस्थ होते हैं, तब औदारिकमिश्रकाय योग का प्रयोग होता है। केवली भगवान जब केवली समुद्घात करते हैं, तब दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्रकाययोग का प्रयोग होता है।
भगवती सूत्र (२)
(516)
Bhagavati Sutra (2)
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