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卐 14. During that period of time there was a city called Rajagriha.
There was a Chaitya called Gunasheelak. Later once again Bhagavan Mahavir arrived there... and so on up to... a congregation took place...
and so on up to... After his sermon people dispersed. ॐ १५. [प्र.] तए णं से कालोदाई अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव ,
उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-अस्थि णं ॐ भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति ?
[उ. ] हंता, अत्थि।
१५. [प्र. ] तदनन्तर अन्य किसी समय कालोदायी अनगार, श्रमण भगवान महावीर के पास आये
और श्रमण भगवान को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवान ! क्या जीवों को के पापफलविपाकसंयुक्त पापकर्म लगते हैं ? [ [उ. ] हाँ, (कालोदायिन् !) ऐसा ही है।
15. (Q.) Later at some point of time ascetic Kalodayi came to Shraman Bhagavan Mahavir, paid homage and obeisance and asked-Bhante ! Do
jivas (souls) acquire demeritorious karmas entailing grave consequences 卐 on fruition ?
[Ans.] Yes, Kalodayi ! It is so.
१६. [प्र. ] कहं णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति ? __[उ. ] कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं विससंमिस्सं 9 भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाए भद्दए भवति, तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए + दुग्गंधत्ताए जहा महस्सवए (स० ६, उ० ३, सु० २ [१] जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति, एवामेव ॐ कालोदाई ! जीवाणं पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्स णं आवाए भद्दए भवइ, तओ पच्छा क परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए जाव भुजो भुज्जो परिणमति, एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता जाव कजंति।
१६. [प्र. ] भगवन् ! जीवों को पापफलविपाकसंयुक्त पापकर्म कैसे लगते हैं ?
[उ. ] कालोदायिन् ! जैसे कोई पुरुष सुन्दर स्थाली (हांडी) में पकाने से शुद्ध पका हुआ, अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन का सेवन करता है। वह भोजन उसे 卐 आपात (प्रारम्भ) में अच्छा लगता है, किन्तु उसके पश्चात् वह भोजन परिणमन होता-होता खराब रूप
में, दुर्गन्धरूप में यावत् छठे शतक के महास्रव नामक तृतीय उद्देशक (सू. २-१) में कहे अनुसार बार
बार अशुभ परिणाम प्राप्त करता है। हे कालोदायिन् ! इसी प्रकार जीवों को प्राणातिपात से लेकर यावत् 5 मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थान का सेवन प्रारम्भ में तो अच्छा लगता है, किन्तु बाद में जब क उनके द्वारा बाँधे हुए पापकर्म उदय में आते हैं, तब वे अशुभरूप में परिणत होते-होते, दुरूपपने में,
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भगवती सूत्र (२)
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Bhagavati Sutra (2) 步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步55555555
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