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नमोऽत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं। नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आइगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स। वंदामि णं भगवंतं तत्थगतं इहगते, पासउ मे से भगवं तत्थगते; जाव वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-पुत्विं पि णं मए समणस्त भगवतो महावीरस्स अंतियं थूलए पाणातिवाते पच्चक्खाए जावज्जीवाए एवं जाव थूलए परिग्गहे पच्चक्खाते जावज्जीवाए, इयाणिं पि णं अहं तस्सेव भगवतो महावीरस्स अंतियं सव्वं पाणातिवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए, एवं जहा खंदओ (स० २, उ० १, सु० ५०) जाव एतं पि णं चरिमेहिं उस्साह-णिस्सासेहिं 'वोसिरिस्सामि' त्ति कटु सन्नाहपढें मुयति, सन्नाहपढें मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते आणुपुब्बीए कालगते। । [११] तत्पश्चात् उस पुरुष के गाढ़ प्रहार से घायल हुआ वरुण नागनतृक अशक्त, अबल, अवीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रम से रहित हो गया। अतः 'अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा' ऐसा समझकर उसने घोड़ों को रोका, घोड़ों को रोककर रथ को वापस फिराया और रथमूसल संग्राम-स्थल से बाहर निकल गया। संग्राम-स्थल से बाहर निकलकर एकान्त स्थान में आकर रथ को खड़ा किया। फिर रथ से नीचे उतरकर उसने घोड़ों को छोड़कर विसर्जित कर दिया। फिर दर्भ (डाभ) का संथारा (बिछौना) बिछाया
और पूर्व दिशा की ओर मुँह करके दर्भ के संस्तारक पर पर्यंकासन से बैठा। और दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा
अरिहन्त भगवन्तों को, यावत् जो सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं, नमस्कार हो। मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार हो, जो धर्म की आदि करने वाले यावत् सिद्धगति प्राप्त करने के इच्छुक हैं। यहाँ रहा हुआ मैं वहाँ रहे हुए भगवान को वन्दन करता हूँ। वहाँ रहे हुए भगवान मुझे देखें। इत्यादि कहकर उसने वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-पहले मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास स्थूल प्राणातिपात का जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान किया था, यावत् स्थूल परिग्रह का जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान किया था, किन्तु अब मैं उन्हीं अरिहन्त भगवान महावीर की साक्षी से सर्व प्राणातिपात का जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान करता हूँ। इस प्रकार स्कन्दक की तरह (अठारह ही पापस्थानों का सर्वथाप्रत्याख्यान कर दिया। फिर इस शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छवास
के साथ व्युत्सर्ग (त्याग) करता हूँ, यों कहकर उसने सन्नाहपट (कवच) खोल दिया। कवच खोलकर लगे हुए बाण को बाहर खींचा। बाण शरीर से बाहर निकालकर उसने आलोचना की, प्रतिक्रमण किया, और समाधियुक्त होकर मरण प्राप्त किया।
[11] Wounded by the strong blow by that adversary, Varun Naagnaptrik lost his strength, power, potency, will and valour. Realizing that he will not last long, he stopped the horses turned the chariot and left the battle ground. He proceeded to a secluded spot, stopped the chariot, alighted from the chariot and released the horses. Now he made a bed of hay and sat on it in Paryank posture facing east. Joining his palms he uttered
भगवती सूत्र (२)
(448)
Bhagavati Sutra (2)
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