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4. Gautam ! Getting free from the fuel of karmas a karma-frec soul naturally moves upwards.
[प्र. ४ ] कहं णं भंते ! पुबप्पयोगेणं अकम्मस्स गती पण्णत्ता ? __ [उ. ] गोयमा ! से जहानामए कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खाभिमुही निव्वाघाएणं गती पवत्तति एवं खलु गोयमा ! नीसंगयाए निरंगणयाए पुब्बप्पयोगेणं अकम्मस्स गती पण्णत्ता।
[प्र. ४ ] भगवन् ! पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ?
[उ. ] गौतम ! जैसे-धनुष से छूटे हुए बाण की गति बिना किसी रुकावट के लक्ष्याभिमुखी (निशाने E की ओर) होती है, इसी प्रकार, हे गौतम ! पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति होती है। इसीलिए हे ॐ गौतम ! ऐसा कहा गया कि निःसंगता से, नीरागता से यावत् पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की (ऊर्ध्व) गति होती है।
[Q. 4] Bhante ! How does a karma-free soul move due to prior 卐 endeavour (purva prayogata)?
[Ans.] Gautam ! An arrow launched from a bow rushes towards the target without any obstructions. In the same way, Gautam ! A karma
free soul moves with the force of prior endeavour. That is why, Gautam ! 11 it is said that a karma-free soul moves (upwards) due to non-association, detachment... and so on up to... prior endeavour.
विवेचन : जैनदर्शन आत्मा को शरीरव्यापी मानता है, तथा कर्ममुक्त होने पर ऊर्ध्वगति स्वभाव वाला भी। %23 पुद्गल की स्वाभाविक गति नीचे की ओर होती है तथा आत्मा (जीव) ऊर्ध्वगति स्वभाव वाला है। कर्म संयोग 5 से जीव नीची, तिरछी व ऊँची गति में जाता है। किन्तु आत्मा की स्वाभाविक गति, ऊर्ध्वगति है। प्रस्तुत सूत्र में , म आत्मा (कर्ममुक्त जीव) की ऊर्ध्वगति के छह कारण बताये हैं-(१) निःसंगता-कर्मों से निर्लेपता मिट्टी के लेप #
से रहित तुम्बे की तरह। (२) नीरागता-मोह (राग) रहितता। (३) गतिपरिणाम-जिस प्रकार दीपशिखा स्वभाव , से ऊपर की ओर गमन करती है, वैसे ही मुक्त (कर्मरहित) आत्मा भी जीव के ऊर्ध्वगति स्वभाव होने से ऊपर
की ओर ही गति करता है। (तत्त्वार्थ राज. १०/६) (४) बन्धछेद-जिस प्रकार बीजकोष के बन्धन के टूट । एरण्ड आदि की फली के बीज की ऊर्ध्वगति देखी जाती है, वैसे ही मुक्त जीव की ऊर्ध्वगति जानी जाती है। "
(५) निरिन्धनता-जैसे ईंधन से रहित होने से धुंआ स्वभावतः ऊपर की ओर गति करता है, वैसे ही कर्मरूप में । इन्धन से रहित अकर्म जीव की स्वभावतः ऊर्ध्वगति होती है। (६) पूर्वप्रयोग-धनुष से छूटे हुए बाण की
निराबाध लक्ष्याभिमुख गति का दृष्टान्त सूत्र में दिया गया है। दूसरा दृष्टान्त (तत्त्वार्थ राज.) यह भी है-जैसे - । कुम्हार के प्रयोग से किया गया हाथ, दण्ड और चक्र के संयोगपूर्वक जो चाक घूमता है, वह चाक उस प्रयत्न के , । बन्द होने पर भी पूर्वप्रयोगवश संस्कारक्षय होने तक घूमता है, इसी प्रकार संसारस्थित आत्मा ने मोक्ष प्राप्ति के है
लिए जो अनेक बार प्रणिधान (प्रयल) किया है, उसका अभाव होने पर भी उसके आवेशपूर्वक मुक्त जीव का गमन निश्चित होता है। (वृत्ति, पत्रांक २९०, देखो संलग्न चित्र)
Elaboration-Jain philosophy believes that although soul is confined in a body, it has a tendency to move upwards when free of karmic bondage. The natural movement of matter is downward and that of soul सप्तम शतक : प्रथम उद्देशक
(337)
Seventh Shatak: First Lesson 155555555))) ) ) )) )) )
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