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[ २ ] अलेसेहिं जीव - सिद्धेहिं तियभंगो, मणुएसु छब्भंगा ।
१०. [१] सलेश्य जीवों का औधिक जीवों की तरह कथन करना चाहिए। कृष्णलेश्या, 5 नीललेश्या, कापोतलेश्या वाले जीवों का कथन आहारक जीव की तरह (सूत्र ७ - १) कहना चाहिए । किन्तु इतना विशेष है कि जिसके जो लेश्या हो, उसके वह लेश्या कहनी चाहिए। तेजोलेश्या में जीव आदि तीन भंग कहने चाहिए; किन्तु इतनी विशेषता है कि पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में छह भंग कहने चाहिए। पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या में जीवादिक तीन भंग कहने चाहिए।
[ २ ] अलेश्य (लेश्यारहित ) जीव और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिए, तथा अलेश्य मनुष्यों में (पूर्ववत्) छह भंग कहने चाहिए।
[2] For aleshya (without complexion of soul) beings and Siddhas three alternatives should be mentioned. For aleshya human beings six alternatives (as aforesaid ) should be stated.
10. [1] Living beings with leshyas (soul-complexions) follow the pattern of statement about jiva (in general). Beings with krishna leshya (black complexion of soul), neel leshya (blue complexion of soul) and kapot leshya (pigeon complexion of soul) follow the pattern of ahaarak jivas (aphorism 7/1). The difference is that the related leshya should be mentioned. As regards tejoleshya (fiery complexion of soul) three alternatives (bhang) including jiva (in general) should be stated with the difference that for earth-bodied, water-bodied and plant-bodied beings 5 six alternatives should be stated. For padma leshya (yellow complexion of soul) and shukla leshya (white complexion of soul) three alternatives including jiva (in general) should be stated.
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छठा शतक : चतुर्थ उद्देशक
विवेचन : ५. लेश्या द्वार-लेश्या वाले जीवों के दो दण्डकों में जीव और नैरयिकों का कथन सामान्य दण्डक के समान करना चाहिए, क्योंकि जीवत्व की तरह सलेश्यत्व भी अनादि इसलिए इन दोनों में किसी प्रकार की विशेषता नहीं है, किन्तु इतना विशेष है कि सलेश्य प्रकरण में सिद्ध पद नहीं कहना चाहिए। कृष्ण-नीलकापोतले श्यावान् जीव और नैरयिकों के प्रत्येक के दो-दो दण्डक आहारक जीव की तरह कहने चाहिए। जिन जीव एवं नैरयिकादि में जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए। जैसे कि कृष्णादि तीन लेश्याएँ, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों में नहीं होतीं । तेजोलेश्या के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। बहुवचन की अपेक्षा द्वितीय दण्डक में जीवादि पदों के तीन भंग होते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में ६ भंग होते हैं, क्योंकि पृथ्वीकायादि जीवों में तेजोलेश्या वाले एकादि जीव- (पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान दोनों प्रकार के) पाये जाते हैं। तेजोलेश्या प्रकरण में नैरयिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, विकलेन्द्रिय और सिद्ध, ये पद नहीं कहने चाहिए, क्योंकि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती । पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के दो-दो दण्डक कहने चाहिए। 5 दूसरे दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिए। पद्म- शुक्ललेश्या प्रकरण में पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य
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Sixth Shatak: Fourth Lesson
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