________________
B5555555555555555555555555555558
卐 14. [Q. 1] During that period of time Parshvapatya (followers of
Bhagavan Parshva Naath) senior ascetics came to Shraman Bhagavan Mahavir. After arriving, they stood keeping their proper distance from Shraman Bhagavan Mahavir and asked-Bhante ! In this occupied space (Lok) with innumerable space-points has there been, is there and will there be occurrence of dawning and fading of infinite days and nights ? Or has there been, is there and will there be occurrence of dawning and 41 fading of limited number of days and nights ?
[Ans.) Yes, noble ones ! In this occupied space (Lok) with innumerable space-points there has been, there is... and so on up to... occurrence of dawning and fading of infinite days and nights (repeat the whole statement).
[प्र. २ ] से केपट्टेणं जाव विगच्छिस्संति वा ?
[उ. ] से नूणं भे अज्जो ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं “सासए लोए बुइए अणादीए अणवदग्गे परित्ते परिवुडे; हेट्ठा वित्थिण्णे, मझे संखित्ते, उप्पिं विसाले, अहे पलियंकसंठिए, मज्झे वरवइरविग्गहिए, + उपिं उद्धमुइंगाकारसंठिए। तंसि च णं सासयंसि लोगंसि अणादियंसि अणवदग्गंसि परित्तंसि परिवुडंसि
हेट्ठा वित्थिण्णंसि, मझे संखित्तंसि, उप्पिं विसालंसि, अहे पलियंकसंठियंसि, मज्झे वरवइरविग्गहियंसि, म उप्पि उद्दमुइंगाकारसंठियंसि अणंता जीवघणा उप्पज्जित्ता उप्पज्जित्ता निलीयंति, परित्ता जीवघणा
उप्पज्जित्ता उप्पज्जित्ता निलीयंति। से भूए उप्पन्ने विगए परिणए अजीवेहिं लोक्कइ, पलोक्कइ। जे लोक्कइ 3 से लोए ?"
[उ. ] 'हंता, भगवं !' से तेणट्टेणं अज्जो ! एवं वुच्चति असंखेजे तं चेव। _ [३] तप्पभिइ च णं ते पासावच्चे थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणंति ‘सवण्णुं सव्वदरिसिं'।
प्र. २. ] भगवन् ! किस कारण से असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न यावत् नष्ट होंगे? __[उ. ] हे आर्यो ! यह निश्चित है कि आपके (गुरुस्वरूप) पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वनाथ ने लोक को
शाश्वत कहा है। इसी प्रकार लोक को अनादि, अनवदन (अनन्त), परिमित, अलोक से परिवृत (घिरा
हुआ), नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, और ऊपर विशाल तथा नीचे पल्यंकाकार (ऊपर सँकड़ा, नीचे के में विस्तृत पद्मासन में स्थित) बीच में उत्तम वज्राकार (मध्य में पतला) और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार (सीधे मृदंग है ॐ पर उल्टा मृदंग की आकृति) कहा है। उस प्रकार के शाश्वत, अनादि, अनन्त, परित्त, परिवृत्त, नीचे म विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, मध्य में उत्तमवज्राकार और ऊपर
ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थित लोक में अनन्त जीवघन (समूह) हो-होकर नष्ट होते हैं और परित्त (नियम = 卐 असंख्य) जीवघन भी उत्पन्न हो-होकर विनष्ट होते हैं। इसीलिए ही तो यह लोक भूत हैं, उत्पन्न है, विगत हैं, 9
步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙5日
भगवती सूत्र (२)
(160)
Bhagavati Sutra (2)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org