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[23] Same is true for Jyotishk Devas (Stellar gods). The only difference is that their respiration has a minimum as well as maximum gap of Muhurt-prithaktva (2 to 9 Muhurt). The remaining details should be read as those already mentioned up to 'they shed shifting karmas and
do not shed unmoving karmas.' म [२४] वेमाणियाणं ठिती भाणियव्वा ओहिया। ऊसासो जहन्नेणं मुहत्तपुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए
पक्खाणं। आहारो आभोगनिव्वत्तिओ जहन्नेणं दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं। सेसं तहेव जाव निज्जरेंति।
[२४] वैमानिक देवों की औधिक स्थिति कहनी चाहिए। उनका उच्छ्वास जघन्य मुहूर्तपृथक्त्व से और उत्कृष्ट तेतीस पक्ष के पश्चात् होता है। उनका आभोगनिर्वर्तित आहार जघन्य दिवसपृथक्त्व से और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्ष के पश्चात् होता है। वे 'चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते', इत्यादि (यहाँ तक) शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् ही समझ लें।
(24) The life-span of Vaimanik Devas (celestial vehicle dwelling gods) is Aughik (in general, 1 Palyopam to 33 Sagaropam). Their respiration has a minimum gap of Muhurt-prithaktva and maximum gap of 33 fortnights. Desire for voluntary intake arises after a minimum gap of Divas-prithaktva (2 to nine days) and a maximum gap of 33 thousand years. The remaining details should be read as those already mentioned up to 'they shed shifting karmas and do not shed unmoving karmas.
विवेचन : प्रस्तुत सूत्रों में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य एवं तीनों निकायों के देवों का समावेश हो जाता है। ॐ तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। वाणव्यन्तर देवों की के 卐 स्थिति जघन्य १० हजार वर्ष, उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। ज्योतिष्क देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम के फ़
८वें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। वैमानिक देवों की औधिक (समस्त वैमानिक देवों की अपेक्षा से सामान्य) स्थिति कही है। औधिक का परिमाण एक पल्योपम से लेकर तेतीस सागरोपम तक है। इसमें जघन्य स्थिति सौधर्म देवलोक की अपेक्षा से और उत्कृष्ट स्थिति अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा से जानना चाहिए।
तिर्यंचों और मनुष्यों के आहार की अवधि ? प्रस्तुत में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का आहार षष्ठभक्त (दो दिन) बीत ॐ जाने पर बतलाया है, वह देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के यौगलिक तिर्यञ्चों की तथा ऐसी ही स्थिति (आयु) + वाले भरत-ऐरवत क्षेत्रीय तिर्यंचयौगलिकों की अपेक्षा से समझें। इसी प्रकार मनुष्यों का आहार अष्टमभक्त बीत 5
जाने पर कहा है, वह भी देवकुरु-उत्तरकुरु के यौगलिक मनुष्यों की तथा भरत-ऐरवत क्षेत्र में जब उत्सर्पिणी । काल का छठा आरा समाप्ति पर होता है और अवसर्पिणी काल का प्रथम आरा प्रारम्भ होता है, उस समय के मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए।
वैमानिक देवों के श्वासोच्छ्वास एवं आहार के परिमाण का सिद्धान्त यह है कि जिस वैमानिक देव की जितने सागरोपम की स्थिति हो, उसका श्वासोच्छवास उतने ही पक्ष में होता है और आहार उतने ही हजार वर्ष में होता है।
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भगवतीसूत्र (१)
(36)
Bhagavati Sutra (1)
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