________________
கதமிமிகவி***தமிமிமிமிததமி***மிதமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதிமி
[ १७–प्र. ५ ] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनके किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ?
[ १७-प्र. ६ ] हे भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को क्या पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए हैं ? [उ. ] ये 'चलित कर्म की निर्जरा करते हैं' यहाँ तक सारा वक्तव्य पूर्ववत् समझना चाहिए।
फ्र
[ उ. ] गौतम ! वे पुद्गल उनके विविधतापूर्वक जिह्वेन्द्रिय रूप में और स्पर्शेन्द्रिय रूप में बार-बार फ्र परिणत होते हैं।
[17 – Q.5] Bhante ! In what form does the matter ingested by the twosensed beings continue to get transformed?
[Ans.] It continues to get transformed into the sense organs of taste and touch in a variety of ways.
[17 - Q. 6] Did the matter taken by two-sensed beings in the past get transformed ?
[Ans.] These details should be read as already mentioned up to 'they shed shifting karmas.'
[१८ से १९ - १ ] तेइंदिय - चउरिदियाणं णाणत्तं ठितीए जाव णेगाई च णं भागसहस्साई अणाघाइजमाणाई अणासाइज्जमाणाइं अफासाइज्जमाणाइं विद्धंसमागच्छंति ।
[ १८ से १९-१ ] त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति में विविधता है, ( शेष सब वर्णन पूर्ववत् है) यावत् अनेक-सहस्र भाग बिना सूँघे, बिना चखे तथा बिना स्पर्श किये ही नष्ट हो जाते हैं।
[१८ से १९ - प्र. २ ] एतेसिं णं भंते! पोग्गलाणं अणाघाइज्जमाणाणं ३, पुच्छा।
[.] गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइज्जमाणा, अणासाइज्जमाणा अनंतगुणा, अफासाइजमाणा अनंतगुणा ।
[ १८ से १९ - प्र. २ ] भगवन् ! इन नहीं सूँघे हुए [ नहीं चखे हुए और नहीं स्पर्श किये हुए ] पुद्गलों में से कौन किससे थोड़ा, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? ऐसी पृच्छा करनी चाहिए।
卐
[18 to 19–1] The life-spans of three and four-sensed beings are 5 different. All other details should be read as already mentioned up to 'many thousand times more gets destroyed without being smelt, tasted or touched'.
[उ.] गौतम ! नहीं सूँघे हुए पुद्गल सबसे थोड़े हैं, उनसे अनन्तगुणे नहीं चखे हुए पुद्गल हैं, और उनसे भी अनन्तगुणे पुद्गल नहीं स्पर्श किये हुए हैं।
[18 to 19 – Q. 2] Bhante ! Of these not smelt, not tasted and not touched matter particles which are less (or more or equal or much more) than the other ?
प्रथम शतक : प्रथम उद्देशक
(33)
Jain Education International
259595959595959 55 59595959595959595959555555595555595 5595555555952
卐
First Shatak: First Lesson
For Private & Personal Use Only
卐
卐
555555595555555 5 555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 55 2
卐
www.jainelibrary.org.