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55 है। जैसे कपड़ा बुनना प्रारम्भ करने पर 'कपड़ा बुना' ऐसा व्यवहार में बोला जा सकता है। क्रिया का प्रथम क्षण
भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना अन्तिम क्षण । इसलिए ऐसा कहना अनुपयुक्त नहीं है। किन्तु 'जमाल' ने
इस
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सिद्धान्त का विरोध कर अपने 'बहुरत ' मत की स्थापना की और कहा- जो कार्य किया जा रहा है, उसे सम्पूर्ण
न होने तक 'किया गया' ऐसा कहना मिथ्या है। इसी सन्दर्भ में गौतम स्वामी ने भगवान के समक्ष ये नौ प्रश्न प्रस्तुत किये। (विशेषावश्यक भाष्य, गा. २३०६-२३०७ )
Elaboration-It was a theory of Bhagavan Mahavir that conclusive
statement with past tense can be used for an act that has been
5 commenced. That which has started moving (present continuous can be 5
called as moved (present perfect). For example once weaving for a cloth
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has commenced it can be generally said that cloth has been woven. The
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first moment of any action is as important as the last moment. Therefore
it is not improper to express thus. But Jamali opposed this theory and
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that an action is concluded when it is still being performed. Gautam
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Swami asked these nine questions in this context only. (Visheshavashyak 5 Bhashya, verses 2306-2307)
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gave his theory of Bahurat-vaad. He said that it was wrong to convey
विशेष शब्दार्थ : चलन - कर्मदल का उदयावलिका के लिए चलना । उदीरणा - कर्मों की स्थिति परिपक्व होने
पर उदय में आने से पहले ही अध्यवसाय विशेष से उन कर्मों को उदयावलिका में खींच लाना। वेदना
5 उदयावलिका में आये हुए कर्मों के फल का अनुभव करना । प्रहाण - आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हुए कर्मों का हटना/गिरना – पृथक् करना । छेदन - कर्म की दीर्घकालिक स्थिति को अपवर्तना द्वारा अल्पकालिक स्थिति
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5 करना । भेदन - बद्ध कर्म के तीव्र रस को अपवर्तनाकरण द्वारा मन्द करना अथवा उद्वर्तनाकरण द्वारा मन्दर
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5 को तीव्र करना । दग्ध - कर्मरूपी काष्ठ को ध्यानाग्नि से जलाकर अकर्म रूप कर देना । मृत - पूर्वबद्ध आयुष्यकर्म के पुद्गलों का नाश होना । निर्जीर्ण- फल देने के पश्चात् कर्मों का आत्मा से पृथक् होना / क्षीण होना । एकार्थजिनका विषय एक हो या जिनका अर्थ अथवा फल एक हो ।
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फ स्वरित जो मध्यम स्वर से बोला जाये। यह तो स्पष्ट कि इन नौ पदों के घोष और व्यंजन (अक्षर)
5 पृथक्-पृथक् हैं।
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घोष - तीन प्रकार के हैं - उदात्त- जो उच्च स्वर से बोला जाये, अनुदात्त जो मंद स्वर से बोला जाये और
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चारों एकार्थक - चलन, उदीरणा, वेदना और प्रहाण; ये चारों क्रियाएँ तुल्यकाल ( एक अन्तर्मुहूर्त्तस्थिति )
5 की अपेक्षा से, गत्यर्थक होने से तथा (केवलज्ञान की उत्पत्ति रूप) एक ही कार्य की साधक होने से
एकार्थक हैं।
भगवतीसूत्र ( १ )
पाँचों भिन्नार्थक-छेदन, भेदन, दहन, मरण, निर्जरण; ये पाँचों पद वस्तुविनाश किंवा विगत पक्ष की अपेक्षा से 5 भिन्न-भिन्न अर्थ वाले हैं। तात्पर्य यह है कि छेदन स्थितिबन्ध की अपेक्षा से, भेदन अनुभाग (रस) बन्ध की अपेक्षा से, दहन प्रदेशबन्ध की अपेक्षा से, मरण आयुष्यकर्म की अपेक्षा से और निर्जरण समस्त कर्मों की अपेक्षा से कहा गया है। अतएव ये सब पद भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक हैं।
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Bhagavati Sutra (1)
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