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________________ **********************************தி अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वतो समंता आसवद्दाराइं पिहेइ, पिहित्ता नावा - उस्सिंचणएणं उदयं उस्सिंचिज्जा, से नूणं मंडियपुत्ता ! सा नावा तंसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणंसि खिप्पामेव उड्ढ उद्दाति ? हंता, उद्दाति । एवामेव मंडियपुत्ता ! अत्तत्तासंवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स जाव गुत्तबंभयारिस्स, आउत्तं गच्छमाणस्स चिट्टमाणस्स निसीयमाणस्स तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थ - पडिग्गह- कंबल - पादपुछणं गेहमाणस्स, निक्खिवमाणस्स जाव चक्खुपम्हनिवायमवि वेमाया सुहुमा इरियावहिया किरिया कज्जइ । सा पढमसमयबद्धपुट्ठा बितियसमयवेइया तइयसमयनिज्जरिया, सा बद्धा - पुट्ठा, उदीरिया, वेदिया निज्जिण्णा सेकाले अकम्मं वावि भवति । से तेणट्ठेणं मंडियपुत्ता ! एवं वुच्चति - जावं च णं से जीवे सया समितं नो एयति जाव अंते अंतकिरिया भवति । [ ५ ] (भगवान) (मान लो) 'कोई एक सरोवर है, जो जल से पूर्ण हो, पूर्ण मात्रा में पानी से भरा हो, पानी से लबालब भरा हो, बढ़ते हुए पानी के कारण उसमें से पानी छलक रहा हो, पानी से भरे हुए घड़े के समान क्या उसमें पानी व्याप्त होकर रहता है ?" ( मण्डितपुत्र - ) हाँ, भगवन् ! उसमें पानी व्याप्त होकर रहता है। (भगवान) अब उस सरोवर में कोई पुरुष, सैकड़ों छोटे-बड़े उतार दे, तो क्या मण्डितपुत्र ! वह नौका उन छिद्रों द्वारा पानी छिद्रों वाली एक बड़ी नौका को भरती - भरती जल से परिपूर्ण हो है ? पूर्ण मात्रा में उसमें पानी भर जाता है ? पानी से वह लबालब भर जाती है ? उसमें पानी बढ़ने से छलकने लगता है ? (और अन्त में) वह (नौका) पानी से भरे घड़े की तरह सर्वत्र पानी से व्याप्त हो जाती है ? ( मण्डितपुत्र - ) हाँ, भगवन् ! वह पूर्वोक्त प्रकार से जल से पूर्ण भर जाती है। ( भगवान - ) यदि कोई पुरुष उस नौका के समस्त छिद्रों को चारों ओर से बन्द कर दे, और वैसा करके नौका की उलीचनी (पानी उलीचने के उपकरणविशेष ) से पानी को उलीच दे (जल के ऊपर उठने को रोक दे तो हे मण्डितपुत्र ! नौका के पानी को उलीच कर खाली करते ही क्या वह नौका शीघ्र ही पानी के ऊपर आ जाती है ? (मण्डितपुत्र - ) हाँ, भगवन् ! ( वैसा करने से, वह तुरन्त ) पानी के ऊपर आ जाती है। (भगवान - ) हाँ, मण्डितपुत्र ! इसी तरह अपनी आत्मा द्वारा आत्मा में संवृत (संयत) हुए, ईर्यासमिति आदि पाँच समितियों से समित तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से गुप्त ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों से गुप्त उपयोगपूर्वक गमन करने वाले, ठहरने वाले, बैठने वाले, करवट बदलने वाले तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छन, रजोहरण (आदि धर्मोपकरणों) को उपयोग के साथ उठाने और रखने वाले अनगार को भी अक्षिनिमेष- (आँख की पलक झपकाने) मात्र समय में विमात्रापूर्वक (विविध मात्रा वाली ) थोड़ी-सी भी सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया लगती है। वह (क्रिया) प्रथम समय में बद्ध - स्पृष्ट, द्वितीय समय में वेदित और तृतीय समय में निर्जीण (क्षीण) हो जाती है। (अर्थात्- ) वह बद्ध-स्पृष्ट, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण तृतीय शतक : तृतीय उद्देशक Jain Education International (451) For Private & Personal Use Only Third Shatak: Third Lesson फ्र www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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