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卐 [उ. ] गोयमा ! तेसि णं देवाणं अहुणोववन्नाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव
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समुप्पज्जति - अहो ! णं अम्हेहिं दिव्या देविड्डी लद्धा पत्ता जाव अभिसमन्नागया । जारिसिया णं अम्हेहिं
5 दिव्या देवड्डी जाव अभिसमन्नागया तारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्डी जाव
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अभिसमन्नागया, जारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा जाव अभिसमन्नागया तारिसिया णं अम्हेहिं वि
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5 जाव अभिसमन्नागया । तं गच्छामो णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवामो, पासामो ताव
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दिव्यं देविडिं जाव अभिसमण्णागयं तं जाणामो ताव सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं देविडि जाव
5 अभिसमन्नागयं, जाणउ ताव अम्ह वि सक्के देविंदे देवराया दिव्वं देविडिं जाव अभिसमण्णागयं । एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा उड्डुं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ।
सेव भंते ! सेवं भंते! त्ति ।
सक्करस देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं देविडिं जाव अभिसमन्नागयं । पासउ ताव अम्ह वि सक्के देविंदे देवराया
[उ.] गौतम ! (देवलोक में) अधुनोत्पन्न - ( तत्काल उत्पन्न ) तथा चरमभवस्थ - ( जीवन के अन्तिम समय में ) उन देवों को इस प्रकार का, इस रूप का आन्तरिक अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न
फ्र होता है अहो ! हमने ऐसी दिव्य देव ऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है, अभिसमन्वागत की है।
४४. [ प्र. ] भगवन् ! असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर किस कारण - (प्रत्यय) से जाते हैं ?
5 जैसी दिव्य देव - ऋद्धि हमने उपलब्ध की है, अभिसमन्वागत की है, वैसी ही दिव्य देव - ऋद्धि देवेन्द्र
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॥ चमरो समत्तो ॥
॥ तइए सए : बिइओ उद्देसो समत्तो ॥
देवराज शक्र ने उपलब्ध की है, अभिसमन्वागत की है, जैसी दिव्य देव ऋद्धि देवेन्द्र देवराज शक्र ने
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5 उपलब्ध की है, अभिसमन्वागत की है, वैसी ही दिव्य देव - ऋद्धि हमने भी उपलब्ध यावत्
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5 अभिसमन्वागत की है। अतः हम जायें और देवेन्द्र देवराज शक्र के सम्मुख प्रकट हों एवं देवेन्द्र देवराज
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5 अभिसमन्वागत दिव्य देव ऋद्धि यावत् दिव्य देव - प्रभाव को हम जानें और हमारे द्वारा उपलब्ध यावत्
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उस दिव्य देव ऋद्धि, देव- प्रभाव को देवेन्द्र देवराज शक्र जानें।
शक्र द्वारा प्राप्त उस दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव - प्रभाव को देखें; तथा हमारे द्वारा लब्ध प्राप्त उस दिव्य
देव ऋद्धि, दिव्य देव - प्रभाव को देवेन्द्र देवराज शक्र देखें । देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा लब्ध,
हे गौतम! इस कारण ( देखने व दिखाने की भावना) से असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर जाते हैं।
'भगवन् ! आपका यह वचन इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', ऐसा कहकर गौतम स्वामी ने भगवान की वन्दना की।
5 तृतीय शतक: द्वितीय उद्देशक
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॥ चमर समाप्त ॥
॥ तृतीय शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
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Third Shatak: Second Lesson
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