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४. [ १ ] उस काल (अवसर्पिणी काल के) और उस समय (चौथे आरे- भगवान महावीर के युग राजगृही नामक नगर था। वर्णक । (उसका वर्णन औपपातिकसूत्र में कथित चम्पानगरी के वर्णन के समान है।) उस राजगृह के बाहर उत्तर-पूर्व के दिशाभाग - ईशानकोण में गुणशीलक नामक चैत्य (व्यन्तरायतन) था। वहाँ श्रेणिक (भम्भासार-बिम्बसार) राजा राज्य करता था। चेल्लणादेवी उसकी रानी थी।
राजगृह में पदार्पण ARRIVAL IN RAJAGRIHA
4. [1] During that period (near the end of the fourth epoch of the 5 current regressing cycle of time) of time (when Bhagavan Mahavir was living on this earth) there was a city called Rajagriha. Description (should be read as that of Champa city as mentioned in Aupapatik Sutra). Outside Rajagriha city, in the north-eastern direction (Ishan Kone) there was Gunasheelak Chaitya (Yaksha temple complex). King Shrenik (Bhambhasar or Bimbasar) ruled there. His queen was Chelana Devi.
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प्रथम शतक : प्रथम उद्देशक
४. [ २ ] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरसवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी लोगुत्तमे लोगणाहे लोगप्पदीवे लोगपज्जोयगरे अभयदए 5 चक्खुद मग्गदए सरणदए बोहिदए धम्मदए धम्मदेसर धम्मनायगे धम्मसारही धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी 5 अप्पsिहयवरनाणदंसणधरे वियट्टछउमे जिणे जाणए बुद्धे बोहए मुत्ते मोयए सव्वण्णू सव्यदरिसी सिवमयलमरुजमणंत- मक्खयमव्याबाहं अपुणरावित्तियं 'सिद्धिगइ' नामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव फ्र समोसरणं । परिसा निग्गया । धम्मो कहिओ । परिसा पडिगया।
४. [२] उस काल, उस समय में ( वहाँ) श्रमण भगवान महावीर स्वामी विचरण कर रहे थे, जो आदिकर ( द्वादशांगी रूप श्रुत के पुरस्कर्त्ता ), तीर्थंकर (प्रवचन या संघ के कर्त्ता) सहसम्बुद्ध (स्वयं तत्त्व के ज्ञाता), पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह (पुरुषों में सिंह की तरह पराक्रमी), पुरुषवर- पुण्डरीक (पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक हजार पंखुड़ियों वाला श्वेत-कमल रूप), पुरुषवरगन्धहस्ती ( पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान), लोकोत्तम, लोकनाथ (तीनों लोकों की आत्माओं के योग-क्षेमंकर) (लोकहितकर), लोक-प्रदीप (दीपक), लोकप्रद्योतकर ( सूर्य के समान), अभयदाता, चक्षुदाता ( श्रुतधर्मरूपी नेत्रदाता), मार्गदाता (मोक्षमार्ग - प्रदर्शक ), शरणदाता ( त्राण - दाता), बोधिदाता, धर्मदाता, धर्मोपदेशक, धर्मनायक, 5 धर्मसारथि (धर्मरथ के सारथि), धर्मवर - चातुरन्त - चक्रवर्ती, अप्रतिहत (निराबाध) ज्ञान - दर्शनधर, छद्मरहित ( छलकपट और अज्ञानादि आवरणों से दूर), जिन ( राग-द्वेषविजेता), ज्ञायक (सम्यक् फ ज्ञाता), बुद्ध (समग्र तत्त्वों को जानकर राग-द्वेषविजेता), बोधक (दूसरों को तत्त्वबोध देने वाले), मुक्त ( बाह्य - आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित), मोचक (दूसरों को कर्मबन्धनों से मुक्त कराने वाले), सर्वज्ञ (समस्त पदार्थों के विशेष रूप से ज्ञाता), सर्वदर्शी (सर्व पदार्थों के विशेष रूप से द्रष्टा ) थे, तथा जो शिव (सर्व बाधाओं से रहित), अचल (स्वाभाविक प्रायोगिक चलन हेतु से रहित), अरुज (रोगरहित), अनन्त (अनन्तज्ञान - दर्शनादियुक्त), अक्षय (अन्तरहित), अव्याबाध (दूसरों को पीड़ित न करने वाले या सर्व प्रकार की बाधाओं से विहीन), पुनरागमनरहित सिद्धिगति (मोक्ष) नामक स्थान को सम्प्राप्त करने के
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First Shatak: First Lesson
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