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95555555555555555555555555555555555556 5 मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासइ तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलंते सयमेव ॥
दारुमयं पडिग्गहगं करेत्ता विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता मित्त-नाति-नियगॐ संबंधिपरियणं आमंतेत्ता, तं मित्त-नाइ-नियग-संबंधिपरयणं विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं मवत्थ-गंध-मल्ला-ऽलंकारेण य सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता, तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-संबंधिपरियणस्स ॐ पुरतो जेटं पुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता, तं मित्त-नाति-णियग-संबंधिपरियणं जेट्टपुत्तं च आपुच्छित्ता, सयमेव 卐 दारुमयं पडिग्गहगं गहाय मुंडे भवित्ता पाणामाए पव्वज्जाए पव्वइत्तए। पव्वइत्ते वि य णं समाणे इमं एयारूवं * अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि-'कप्पइ मे जावज्जीवाए छठंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ 卐 पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि
आयावणभूमीओ पच्चोरुभित्ता सयमेव दारुमय पडिग्गहयं गहाय तामलित्तीए नगरीए उच्च-नीयॐ मज्झिमाई कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता सुद्धोदणं पडिग्गाहेत्ता, तं तिसत्तखुत्तो उदएणं पक्खालेत्ता, तओ पच्छा आहारं आहारित्तए त्ति कटु। एवं संपेहइ।
संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलंते सयमेव दारुमयं पडिग्गहगं करेइ, करित्ता विउलं असणपाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता तओ पच्छा पहाए कयबलिकम्मे ॐ कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवर परिहिए अप्पमहग्याऽऽभरणालंकियसरीरे 9 भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगते। तए णं मित्त-नाइ-नियग-संबंधिपरिजणेणं सद्धिं तं विउलं ॐ असण-पाण-खाइम-साइमं आसादेमाणे वीसादेमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे विहरइ। म २५. तत्पश्चात् किसी एक दिन पूर्व रात्रि व्यतीत होने पर पश्चिम रात्रि (तृतीय प्रहर) के समय ॐ कुटुम्ब जागरिका (कुटुम्बं के विषय में चिन्तन) जागते हुए उस मौर्यपुत्र तामली गाथापति को इस प्रकार म का यह अध्यवसाय यावत् मन में संकल्प उत्पन्न हुआ कि-"मेरे द्वारा पूर्वकृत, पुरातन (दानादि रूप में) + सम्यक् आचरित, सुपराक्रमयुक्त, शुभ और कल्याणरूप कृतकर्मों का कल्याणफलरूप प्रभाव अभी तक
तो विद्यमान है; जिस (पूर्वार्जित पुण्य-प्रभाव के कारण) मेरे घर में हिरण्य (चाँदी), सुवर्ण, धन, धान्य, म पुत्र-परिवार, पशुधन बढ़ रहा है तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, चन्द्रकान्त वगैरह
मणिरूप पत्थर, प्रवाल (मूंगा) रक्तरत्न तथा माणिक्यरूप सारभूत धन की अधिकाधिक वृद्धि हो रही है। है तो क्या मैं, पूर्वकृत, पुरातन (दानादिरूप में) समाचरित यावत् पूर्वकृत (शुभकर्मों) का फल भोगने से
उनका एकान्तरूप से क्षय हो रहा है, इसे अपने सामने देखता रहूँ-इस (क्षय = नाश) की उपेक्षा करता
रहँ ? (अर्थात-मझे इतना सख-साधनों का लाभ है. इतना ही बस मानकर क्या भविष्यकालीन लाभ के ऊ प्रति उदासीन बना रहूँ? यह मेरे लिए ठीक नहीं है।) अतः जब तक मैं चाँदी-सोने यावत् माणिक्य आदि
सारभत पदार्थों के रूप में सखसामग्री द्वारा दिनानदिन अतीव-अतीव अभिवद्धि पा रहा हूँ और जब तक मेरे मित्र, ज्ञातिजन-(स्वगोत्रीय), निजक-कुटुम्बीजन, मातृपक्षीय (ननिहाल के) या श्वसुरपक्षी सम्बन्धी एवं परिजन-(दास-दासी आदि) मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी रूप में मानते हैं, मेरा सत्कार-सम्मान
करते हैं, मुझे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और चैतन्य (समझदार = अनुभवी) रूप मानकर विनयपूर्वक ॐ मेरी सेवा करते हैं; तब तक (मुझे) अपना कल्याण कर लेना चाहिए। यही मेरे लिए श्रेयस्कर है। अतः रात्रि
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भगवतीसूत्र (१)
(372)
Bhagavati Sutra (1)
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