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________________ hhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhh 95555555555555555555555555555555555558 १३. [प्र. ] भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र ऐसी महान् ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तो आप देवानुप्रिय का शिष्य 'तिष्यक' नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था, निरन्तर बेले-बेले की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूरे आठ वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को जुष्ट-(पोषित) करके, तथा साठ भक्त अनशन का पालन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण करके, मृत्यु प्राप्त करके सौधर्मदेवलोक में गया है। वह वहाँ अपने विमान में, उपपातसभा में, देव-शयनीय (देवों की शय्या) में देवदूष्य (देवों के वस्त्र) से ढंके हुए अंगुल के असंख्यात भाग जितनी अवगाहना में देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। फिर तत्काल उत्पन्न हुआ वह तिष्यक देव पाँच प्रकार की पर्याप्तियों, जैसे-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति और भाषा-मनःपर्याप्ति से पर्याप्तिभाव को प्राप्त हुआ। तदनन्तर जब वह तिष्यकदेव पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त हो चुका, तब सामानिक परिषद् के देवों ने दोनों हाथ जोड़कर एवं दसों अंगुलियों के दसों नखों को इकट्ठे करके मस्तक पर अंजलि करके जयके विजय शब्दों से बधाई दी। फिर इस प्रकार बोले-अहो ! आप देवानुप्रिय ने यह दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-द्युति (कान्ति) (पूर्वकृत शुभकर्मों से-) उपलब्ध की है, प्राप्त की है, और दिव्य देवप्रभाव अभिमुख में (अनुभव) किया है। जैसी दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-कान्ति और दिव्य देवप्रभाव आप देवानुप्रिय ने म उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुख किया है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव देवेन्द्र देवराज शक्र ने उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुख किया है; जैसी दिव्य ऋद्धि दिव्य देवकान्ति और दिव्यप्रभाव देवेन्द्र देवराज शक्र ने लब्ध, प्राप्त एवं अभिमुख किया है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि, दिव देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव आप देवानुप्रिय ने उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुख किया है। तदनन्तर अग्निभूति अनगार भगवान से पूछते हैं-भगवन् ! वह तिष्यक देव कितनी महान् ऋद्धि वाला है, यावत् कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [उ.] गौतम ! वह तिष्यकदेव महाऋद्धि वाला है, यावत् महाप्रभाव वाला है। वह वहाँ अपने विमान पर चार हजार सामानिक देवों पर, सपरिवार चार अग्रमहिषियों पर, तीन परिषदों (सभाओं)पर, सात सैन्यों पर, सात सेनाधिपतियों पर एवं सोलह हजार आत्मरक्षक देवों पर तथा अन्य बहुत-से वैमानिक देवों और देवियों पर आधिपत्य एवं नेतृत्व करता है। यह तिष्यकदेव ऐसी महाऋद्धि वाला है, यावत् इतनी # विकुर्वणा करने में समर्थ है, जैसे कि कोई युवती (भय अथवा भीड़ के समय) युवा पुरुष का हाथ दृढ़ता से के पकड़कर चलती है, अथवा गाड़ी के पहिये की धुरी आरों से गाढ़ संलग्न होती है, इन्हीं दो दृष्टान्तों के - अनुसार वह शक्रेन्द्र जितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है। हे गौतम ! यह जो तिष्यकदेव की इस प्रकार की # विकुर्वणा-शक्ति कही है, वह उसका सिर्फ विषय है, विषयमात्र है, किन्तु सम्प्राप्ति (क्रिया) द्वारा कभी उसने इतनी विकुर्वणा की नहीं, करता भी नहीं और भविष्य में करेगा भी नहीं। % 13. [Q.] Bhante ! (As you have said-) “So great is the opulence fi (riddhi)... and so on up to... capacity of transmutation (vikurvana) of 44 hhh % %% % %% % म | तृतीय शतक : प्रथम उद्देशक (359) Third Shatak: First Lesson Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002902
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2005
Total Pages662
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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